For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-3 (विषय: बंधन)

आदरणीय साहित्य प्रेमियो,
सादर वन्दे।
 
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" के पहले दो आयोजन बेहद सफल रहे। लघुकथाकारों ने बहुत ही उत्साहपूर्वक इन में सम्मिलित होकर इन्हें सफल बनाया। न केवल उच्च स्तरीय लघुकथाओं से ही हमारा साक्षात्कार हुआ बल्कि एक एक लघुकथा पर भरपूर चर्चा भी हुई। गुणीजनों ने न केवल रचनाकारों का भरपूर उत्साहवर्धन ही किया अपितु रचनाओं के गुण दोषों पर भी खुलकर अपने विचार प्रकट किए।  कहना न होगा कि यह आयोजन लघुकथा विधा के क्षेत्र में एक मील के पत्थर साबित हुए हैं । इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत है....

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-३  
विषय : "बंधन"
अवधि : 29-06-2015 से 30-06-2015
(आयोजन की अवधि दो दिन अर्थात 29 जून 2015 दिन सोमवार से 30 जून 2015 दिन मंगलवार की समाप्ति तक)

अति आवश्यक सूचना :-
१. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक सर्वश्रेष्ठ लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
२.सदस्यगण एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हलकी टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।
३. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
४. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी लगाने की आवश्यकता नहीं है।
५. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
६.  नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
७. आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है।
८. इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं। रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें।
९ . सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर केवल एक बार ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
.
(फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 29 जून 2015, दिन सोमवार लगते ही खोल दिया जायेगा)
यदि आप किसी कारणवश अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.
लघुकथा के नियम, शिल्प एवं संरचना सम्बन्धी जानकारी हेतु यहाँ क्लिक करें
.
मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

Views: 20174

Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

 आदरणीय  Chandresh Kumar Chhatlani जी , वाह कम शब्दों में बहुत  गहरी बात , सुन्दर रचना अंतिम पंक्ति कमाल की है , हार्दिक बधाई ! सादर 

सारगर्भित !! आ, चन्द्रेश भाई बधाई स्वीकारे इस प्रस्तुती हेतु 

आ. चन्द्रेश कुमार जी प्रदत्त विषय को सार्थक करती लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

लघुकथा पर बधाई आ० चंद्रेश जी! पर मुझे जाने क्यों कुछ कमी लग रही है कथा में जैसे बात पूरी नही हो पाई हो!अंतिम पंक्तियां विस्तार मांग रही है शायद!

बन्धन (लघुकथा)

==============

बाबा जबतक रहे बिना नागा हर पूर्णिमा की सुबह नदी के उस बरगद के पास जाते और एक ओर अलग झुक गयी डाल को देर तक हथेलियों से महसूस करते. जाने क्या देर तक बतियाते रहते. सूरज चढ़े पर कोई लिवा ले जाता - "बाबा.. बहुत देर हो गयी.."
बिना कुछ बोले बाबा लौट चलते.

तब बाबा हर पूर्णिमा की अलस्सूबह दादीजी के साथ नदी पर आते थे. लौटते समय इसी बरगद की छाँव में कुछ देर रुकते. इस झुकी डाल की टेकन लेकर कहाँ-कहाँ की समस्याएँ सुलझायी जातीं. कुछ घर की, कुछ जग की. दादीजी खोलती जातीं. बाबा बान्धते जाते, समझाते हुए, कई बार झुंझलाते हुए, तो कई बार झिड़कते हुए भी. फिर वो दिन ! आखिरी बार दादीजी को यहीं रखा गया था, इसी बरगद के नीचे. तब तेज़ दुपहरिया थी. बरगद की इसी डाल से बाँध कर चादर फैलायी गयी थी.

नन्हकुआ कहता है, बाबा जब झुंझलाते हुए वहाँ झिड़की देते थे तो दादीजी भी आ जाती थीं, उनकी झिड़की सुनने. पता नहीं सच क्या है.
******************
(मौलिक और अप्रकाशित)

ये भी अजीब मानसिक और आत्मिक बंधन है जीवनसाथी का, बिना उसके गुजारा नहीं| प्रेम का मजबूत बंधन आस पास की उर्जा को भी प्रेममय कर देता है| आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, सच्चे प्रेम को परिभाषित करती इस लघु कथा हेतु आपको सादर बधाई|

आदरणीय चन्द्रेशजी, आपने सत्विक निश्छल भावमय प्रेम को महसूस किया, बस मेरी रचन सफल हुई. बहुत कुछ हैजो शाब्दिक नहीं हो सकता. कैसे-कैसे हमारे बड़े निभा ले गये और एक हम हैं कि इसी में निभ जा रहे हैं..
प्रस्तुति को अनुमोदित करने केलिए हार्दिक धन्यवाद

आदरणीय सौरभ सर,

प्रदत्त विषय पर आपने एक उत्कृष्ट लघुकथा प्रस्तुत की है. वाक्य विन्यास, शब्द चयन और कथा की कसावट, आपकी सधी हुई लेखनी और आपके गहन अभ्यास को स्पष्ट प्रदर्शित कर रही है. आपने बाबा और दादीजी को नायकत्व में रखते हुए भी उनके साथ साथ बरगद और उसकी झुकी हुई शाखा को पात्र बनाकर सजीव कर दिया और लगभग नायकत्व भी प्रदान कर दिया.

स्मृतियों के दीप स्थूल के साथ-साथ कुछ सूक्ष्म वस्तुओं को भी जागृत करते है, ये इस लघुकथा में स्पष्ट देखने को मिला है. बाबा और दादी के परस्पर पवित्र बंधन के दिव्य आलोक में जगे हुए उद्दात भावों को हृदय की गहराइयों तक ले जाती इस लघुकथा को पढ़कर पाठक खो ही जाएगा. यादों के महाकुम्भ से, एक पवित्र आस्था की टोलियों सी निकली यह लघुकथा, ह्रदय को झंकझोर गई और  द्रवित भी कर गई. इस बंधन की सघनता को महसूस करते हुए, बरगद की उस झुकी हुई शाख से जैसे कोई करूण-राग फूटा जा रहा हो और पाठक का मन भी उस राग की गूँज में खो कर करुण हो उठा है. इसे केवल अनुभव किया जा सकता है, शब्दों में अभिव्यक्त करना मेरे जैसे नए अभ्यासी के लिए तनिक कठिन है.

बरगद के तले गूँज रहा बाबा और दादीजी का जीवन-संगीत, एक संवेदनशील पाठक को, स्मृति की एक अलग ही दुनिया में ले जाता है जिसे वाकई शाब्दिक किया जाना कठिन है और आपने इस कठिन कार्य को जिस सहजता से किया है, उसे इस लघुकथा के रूप में देखकर  चकित हूँ, भावविभोर हूँ. इस लघुकथा का कथानक चाहे जितना लघु हो मगर उसके मर्म का विस्तार वृहद और विराट है. यह लघुकथा एक बड़े फलक पर खुलती है.

प्रदत्त विषय बंधन को जिस सुन्दरता से इस लघुकथा में संघनित किया गया है वह गहरे तक प्रभावित करता है. ये वाक्य किसी अनुभवी लेखनी से ही निकल सकता है- “दादीजी खोलती जातीं. बाबा बान्धते जाते, समझाते हुए, कई बार झुंझलाते हुए, तो कई बार झिड़कते हुए भी.” दादीजी का बतियाँ खोलना और बाबा का बाँधना, जिस बारीकी से आपने बात को देखा और शाब्दिक करते हुए खोला है, कमाल है. बिचारे सभी बाबाओं की सारी ज़िन्दगी बाँधने में ही गुजर जाती है. इस वाक्य को पढ़ते हुए कितने सयाने याद आ गए जो अभी हमें छत्रछाया प्रदान करते आज है या वो भी जो इस दुनिया से चले गए.

“बाबा जब झुंझलाते हुए वहाँ झिड़की देते थे तो दादीजी भी आ जाती थीं, उनकी झिड़की सुनने.” प्रदत्त विषय को ये पंक्तियाँ न के केवल सघनता से प्रस्तुत करते हुए विषय को सार्थक करती है बल्कि विषय के साथ न्याय भी करती है. आपने एक ऐसी भावभूमि पर कथा की सर्जना की है कि एक एक वाक्य पर कई कई बातें मन में आ रही है. खैर....... फिर कभी

फिलहाल आपको इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई और ऐसी सुन्दर भावपूर्ण रचना का पाठक बनाने के लिए आभार. नमन 

आदरणीय मिथिलेश भाईजी, आपने इस प्रस्तुति की जिस भाव के साथ व्याख्या की है, उसमें आपकी भावना भी हिलोर मारती सस्वर हो रही है. दो पीढ़ियाँ पहले के लोग थोड़े सहज थे, सीधे थे. या तबभी उनका जीवन ऐसा ही क्लिष्ट था ? पता नहीं ! लेकिन यह अवश्य है कि तब परस्पर प्रेम की लौ आज की लौ की तरह यों सतह पर नहीं हुआ करती थी. एक मुखर आवरण हुआ करता था.
बन्धन का यह स्वरूप मुझे सदा से लुभाता रहा है - मज़ा क्या रहा जबकि खुद कर दिया हो मुहब्बत का इज़हार अपनी ज़ुबां से !

आपने जिस आत्मीयता से मेरी प्रस्तुति के मर्म को छूआ है वह मुझे ही चकित कर रहा है. मेरा काम मैंने भाई कर दिया. अब सुधी पाठकों के हवाले यह प्रस्तुति. देखिये इसमें कितनी रिडण्डेन्सी निकलती है. :-))
क्योंकि यह भी उतना ही सत्य है कि यह विधा मेरी अपनी विधा नहीं है. मैं आरोपित लिखैया हूँ अभी तक ! इस विधा में स्वतंत्र लेखन नहीं कर सका हूँ, सिवा अपनी पहली लघुकथा के.
आपकी विशद व्याख्या से मन अतिरेक में है.
हार्दिक धन्यवाद, भाईजी

// यह विधा मेरी अपनी विधा नहीं है. मैं आरोपित लिखैया हूँ अभी तक ! //

ये कहना गलत होगा सर. आरोपित लिखैया ऐसा कमाल नहीं करते.

खैर ....

गुलेरी जी ने कुछेक कहानियाँ लिखी है लेकिन भारत के प्रमुख कहानीकारों में से एक है 

जय हो..  

:-))))))

यह अवश्य हैकि इस लघुकथा के होने के क्रम में मेरी भी आँखें कई बार भीगी हैं ..

सर जी , इस भाव पर एक प्रेम कथा मैने भी लिखी थी लालकिले के परकोटे में बिना देखे मिले प्रेम को निशःब्द जिये जाना ....यह मन के अंदर का अनगिनत आवरणों के अंदर निहित एक लौ है जो सतत अपनी मध्यम सी ठंडी आँच लिये जलता ही रहता है । हाँ , सही कहा है आपने कि लिखते समय ऐसी रचनाएँ आँखों को भिगो जाती है तभी तो हम पढने वालो को उन आँखों की नमी मन की गहराई तक भिगो जाती है । कई बार पढु इस रचना को तब भी एक बार पढने की आस रह जाती है । यही तो लेखन की सफलता का अर्थ है । नमन सर जी आपको

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . . .
"आदरणीय सौरभ जी आपके ज्ञान प्रकाश से मेरा सृजन समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय जी"
1 hour ago
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
5 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-182

परम आत्मीय स्वजन,ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 182 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का…See More
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey added a discussion to the group भोजपुरी साहित्य
Thumbnail

गजल - सीसा टूटल रउआ पाछा // --सौरभ

२२ २२ २२ २२  आपन पहिले नाता पाछानाहक गइनीं उनका पाछा  का दइबा का आङन मीलल राहू-केतू आगा-पाछा  कवना…See More
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . . .
"सुझावों को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सुशील सरना जी.  पहला पद अब सच में बेहतर हो…"
6 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

कुंडलिया. . . .

 धोते -धोते पाप को, थकी गंग की धार । कैसे होगा जीव का, इस जग में उद्धार । इस जग में उद्धार , धर्म…See More
12 hours ago
Aazi Tamaam commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"एकदम अलग अंदाज़ में धामी सर कमाल की रचना हुई है बहुत ख़ूब बधाई बस महल को तिजोरी रहा खोल सिक्के लाइन…"
21 hours ago
surender insan posted a blog post

जो समझता रहा कि है रब वो।

2122 1212 221देख लो महज़ ख़ाक है अब वो। जो समझता रहा कि है रब वो।।2हो जरूरत तो खोलता लब वो। बात करता…See More
yesterday
surender insan commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। अलग ही रदीफ़ पर शानदार मतले के साथ बेहतरीन गजल हुई है।  बधाई…"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . . .
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन के भावों को मान देने तथा अपने अमूल्य सुझाव से मार्गदर्शन के लिए हार्दिक…"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . . .
"गंगा-स्नान की मूल अवधारणा को सस्वर करती कुण्डलिया छंद में निबद्ध रचना के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

कुंडलिया. . . .

 धोते -धोते पाप को, थकी गंग की धार । कैसे होगा जीव का, इस जग में उद्धार । इस जग में उद्धार , धर्म…See More
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service