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आदरणीय सुधीजनो,

दिनांक – 10 अगस्त’ 13 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के अंक -34 की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “सावन” था.

हरियाली तीझ के त्यौहार और ईद की खुशियों के साथ चले द्विदिवसीय ओबीओ लाइव महोत्सव अंक-34 में 31 रचनाकारों नें अपनी भाव भीनी सावनी अनुभूतियों, कल्पनाओं, भावनाओं, स्मृतियों को कलमबद्ध कर 38 उत्कृष्ट रचनाओं की प्रस्तुति से महोत्सव को सफल बनाया.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
डॉ. प्राची सिंह
संचालक
ओबीओ लाइव महा-उत्सव

 

1. श्री सौरभ पाण्डेय जी 

 

सावन और आदमी उर्फ़ सवाल सावन के 

गगन में झूमते हैं हम, पहाड़ों पर बरसते हैं 
नदी की धार में बहते, सरोवर में सरसते हैं 
बहारों से सजा कर इस धरा पर स्वर्ग लायें हम  
भला क्या चाहिये तुमको, कहो क्यों हो गये ऐसे ? 

बहुत खुश थे तुम्हें लेकर, दिलोजाँ हम मिटा बैठे  
तुम्हें खुशियाँ मिले हरदम मगर खुद को पिटा बैठे 
महज सहयोग चाहा था मगर तुम और ही निकले 
भला क्या चाहिये तुमको, कहो क्यों हो गये ऐसे ? 

घटा घनघोर से मिल कर पुलक हम बूँद से झरते 
करो भी याद बगिया की जहाँ झूले पड़ा करते 
भुला पाये कहो कैसे मधुर तुम तान कजरी की 
भला क्या चाहिये तुमको, कहो क्यों हो गये ऐसे ? 

खुला सम्बन्ध था अपना, धरा को तुष्ट करता था  
तभी तो पर्व में त्यौहार का उत्साह भरता था 
बताओ मध्य अपने स्वांग और इस भेद का कारण 
भला क्या चाहिये तुमको, कहो क्यों हो गये ऐसे ? 

निभाया क्या, निभाओगे, हमें तो त्रस्त कर डाला 
हृदय पत्थर तुम्हारा यार, रग़-रग़ पस्त कर डाला 
घिनौना स्वार्थ हावी है, नहीं सहकार आपस में 
भला क्या चाहिये तुमको, कहो क्यों हो गये ऐसे ? 

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2. श्री राणा प्रताप सिंह जी 

 

काले काले बादलो, बरसो अपरम्पार
मन के अन्दर तक पड़े, सुधियों की बौछार

बरसो मेघ झपाक से, कर दो सबको दंग
छोड़ किनारे चल पड़ें, इत यमुना उत गंग

पडी हुई थी घास भी, जैसे जल बिन मीन
सावन आया हो गई, वह अनुशासनहीन

बरसाती की छत बनी, चूल्हे में है आग
दिन मस्ती में कट गया, रातें कटती जाग

टी वी पर आये क्रिकेट, बाहर हो बरसात
उस पर चुस्की चाय की, क्या हो बेहतर बात

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3.श्रीमति गीतिका 'वेदिका' जी 

 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल

 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, सावन के महीने में ! 

 

कैसे आऊँ मै तेरी ससुराल, है रस्ते काँटों भरे

अम्मा आओ न मेरी ससुराल

मै चुन दूंगी कांटे तेरे ! १ 

 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, सावन के महीने में !  

 

कैसे आऊँ मै तेरी ससुराल, गाँव तीरे नदिया भरी

अम्मा आ ओ न मेरी ससुराल

है माझी की नैया धरी ! २ 

 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, सावन के महीने में !

 

कैसी आऊँ मै तेरी ससुराल, बहुरिया अकेली यहाँ

अम्मा आओ न मेरी ससुराल,

घर छोडो भैया वहाँ ! ३ 

 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, सावन के महीने में !

 

कैसी आऊँ मै तेरी ससुराल, ससुर तेरा समधी मेरा 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल,

घुंघटा है ओट तेरा ! ४ 

 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, सावन के महीने में !

 

कैसी आऊँ मै तेरी ससुराल, माँ, बेटी-घर न खाए पिए

अम्मा आओ न मेरी ससुराल,

चिवड़ा, चना गुड़ लिए ! ५ 

 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, सावन के महीने में !

 

कैसी आऊँ मै तेरी ससुराल,  माँ, बेटी-घर प्यासी खड़ी

अम्मा आओ न मेरी ससुराल,

नगर में कुआ बावड़ी ! ६ 

 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, सावन के महीने में !

 

कैसी आऊँ मै तेरी ससुराल, क्या बताऊँ तेरे बाबा को 

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, 

मैके  भेजूं सजना को  ! ७ 

  

अम्मा आओ न मेरी ससुराल, सावन के महीने में !

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4.श्री हेमंत शर्मा जी 

 

ये सावन का महीना है

आज से ठीक एक साल पहले भी

ऐसा ही एक महीना था

आज से ठीक एक साल बाद भी

ऐसा ही होगा सावन का महीना

हरा भरा, प्रेम वरसाता,

कवियों को लुभाता,

मोरों को नचाता

हर तरफ खुशियां,उल्लास,प्रेम,उन्माद

पर जिनके घरों की

दीवार इतनी मजबूत नही होतीं कि

एक कील ठोककर टांग सकें

कैलेण्डर

पता नही चलता उन्हे

महीनों के बदलने का

उनके लिये तो दिन बदलते हैं

आज का दिन

कल का दिन

कल के बाद का दिन

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5.श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी 

 

1.सावन का गीत

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वन उपवन में यौवन छाया |

 

वसुधा पर छाई हरियाली

खेतो में भी रंगत  आई |

धरती के आँगन में बिखरी

मखमल सी हरियाली छाई ||

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वन उपवन में यौवन छाया |

 

उमड़ घुमड़ बदली बरसाए

सावन मन बहकाता जाए |

साजन लौट जब घर आये

गाल गुलाबी रंगत लाये ||

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वन उपवन में यौवन छाया |

 

जिया पिया का खिलखिल जाए  

नयनों से  अमरित  बरसाए |

तन मन में यौवन छा जाए

पिया मिलन के पल जब जाए ||

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वन उपवन में यौवन छाया |

 

साजन ने गजरे में गूंथा

गेंदे की मुस्काई कलियाँ |

बागों में झूला डलवाया

झूला झूले सारी सखियाँ ||

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वन उपवन में यौवन छाया |

 

शीतल मंद हवा का झौका

मस्त मधुर यौवन गदराया |

मटक मटक कर चमके बिजुरी

सजनी का भी मन इतराया ||

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वन उपवन में यौवन छाया |

 

हरियाली तीज त्यौहार में

चंद्रमुखी सी सजती सखियाँ

शिव गौरी की पूजा करती

मेहंदी रचे हाथो से सखियाँ |

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वन उपवन में यौवन छाया |

 

चंद्रमुखी मृगलोचनी सी          

नवल वस्त्र में सजकर सखियाँ |

झूम झूम कर  नाचे  गावें   

द्रश्य देख हर्षाये रसियाँ || 

रिमझिम रिमझिम सावन आया

वन उपवन में यौवन छाया |

 

2. सावन के दोहे

सावन के झूले करे, कुदरत का संकेत,

आगे पीछे झूलते, धुप-छाँव सम देत | 

 

रिमझिम बरखा देख कर,नाचे झूमे मोर,

कुदरत भी रस घोलती,मेघ घटा घनघोर |

 

खन-खन खनके चूडियाँ, होवे ह्रदय विभोर,

मनवा डोले लरजते, भीगे दृग के कोर |

 

सावन में खुशियाँ बढे, मने तीज त्यौहार,

साजन सजनी का करे, तरह तरह मनुहार |

 

सावन में झूले डले, कोयलियाँ री तान,

सावन बरसे आँख से,बाबुल की मुस्कान |

 

हरा भरा सावन रहे, जीवन खुली किताब,

सबसे हम हँसते मिले, सूखे नहीं गुलाब |

 

ईद तीज त्यौहार का, कैसा सुंदर योग,

बना रहे सौहार्द तो, मिटे द्वेष का रोग |

 

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6.श्री शिज्जू जी 

 

ग़ज़ल- अब्र यूँ झूम बरसने लगे हैं(2122 1122 112)

आज फिर देखो गरजने लगे हैं

अब्र यूँ झूम बरसने लगे हैं

 

बजती बून्दों का तरन्नुम ये रवाँ

पाँव मेरे भी थिरकने लगे हैं

 

गुल खिले और हवा महकी चली

गुलक़दे यूँ कि सँवरने लगे हैं

 

फ़ैज़ नाज़िल हुई ता हद्दे-नज़र

वो गुले खुदरो भी खिलने लगे हैं

 

जी उठी है ये जमीं सावन में

रंग ज़ीस्त के बदलने लगे हैं

 

गुलक़दे= पुष्पागार. फ़ैज़= अनुकम्पा.

गुले खुदरो= वो फूल जो बोया न गया हो बल्कि अपने आप उगा हो

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7. श्रीमति सीमा अग्रवाल जी 

 

कजरी

आ गयी सावन की मनभावन ऋतु सुहानी

चुनरिया उड़ उड़ जाए सजनी

 

झूले पड़ गये कदंब की डार

झूले राधा संग मुरार

सखियाँ नाचे दे दे ताली

बरसे पानी

चुनरिया उड़ उड़ .............

.

कंगन खनके झुमका डोले

पायल हौले से ये बोले

सजना ला दे हमको अब के

चूनर धानी

चुनरिया उड़ उड़...............

 

बादल गरजे  बिजुरी कड़के

जियरा धक धक धक धक धड़के

सजना माने नही

करे मनमानी

चुनरिया..................

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8.श्री अविनाश बागडे जी 

1.

खुशियों में मुस्काया आँगन 

ईद मुबारक हो । 

हर पल लगता पावन-पावन 

ईद मुबारक हो । 

खुशियों का आना-जाना ही 

जीवन की पहचान 

रमजान गया अब आया सावन 

ईद मुबारक हो । 

 

2.

छन्न पकैया छन्न पकैया ,सावन आया द्वार  . 

हरियाले गहनों को लेकर ,धरती करे सिंगार . 

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,बादल  करते शोर. 

छठा निराली देख देख के ,नाचे मन का मोर . 

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,पिया गए परदेस . 

सावन की मदमस्त हवांए ,लगा रही है ठेस . 

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,नदियों में ऊफान 

खतरों के सब पार हो गए ,देखो सभी निशान . 

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,नहीं सभी खुशहाल  . 

गाँव बह गए सड़कें टूटी , हँसता खड़ा अकाल !!! 

 

छन्न पकैया छन्न पकैया ,करना माफ़ इलाही 

कहीं चित्र है पानी- पानी ,कहीं  है त्राही -त्राही ???

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9.सुश्री सरिता भाटिया जी 

 

1.माहिया  (तीन पंक्ति 12,10,12 मात्रा पहली तीसरी पंक्ति तुकांत )

 

आई है पुरवाई
बादल काले सँग
छम छम बरखा लाई

 

सावन है अब आया
झूले झूलो सब

मौसम है मन भाया

 

सावन का है मौसम
फुहार लाया है
फिर काहे का है गम

 

बदली फिर छाई है
जल्दी आ साजन
रुत मिलन की आइ है

 

कम होया पारा है
अब तु आ माहिया
तुम बिन न गुजारा है

 

रुत सावन बरस गई
याद तुम आ गए
पर अखियाँ तरस गई

 

छत पर कौवा बोले

माहिया आयगा
दिल धक धक धक डोले

 

हम जाने ना देंगे
सावन आया है

मिल झूले डालेंगे

 

सावन की रुत आई

माहिया आ गया
गोरी अब शरमाई

 

चौबारे आ जाना
झूले पड़ गय हैं
तुम सूरत दिखा जाना

 

बगिया में आ जाना
झूले झूलेंगे
तुम घेवर ले आना

 

बगिया में आएंगे
घेवर ला करके
गोरिया मनाएंगे

 

सावन का महीना है
हमको ले जाना
तुम बिन ना जीना है

 

सावन आय झूम के 

पाती साजन की
हम रखेंगे चूम के

 

2.

पहन खनकती चूड़ियाँ,मेंहदी लगे हाथ 
सुहागिन करे कामना,सजना का हो साथ ||

 

अम्बर को छूने चलीं, कर धानी श्रृंगार 
तन मन भीगा मेघ से ,गूँज उठे मल्हार||


त्यौहार तीज का अभी, ले आया सन्देश 
धरा के संग नारियाँ, धर लें धानी वेष ||


रंग बिरंगी ओढ़नी,पहन रहीं हैं झूम 
मेले में ही तीज के ,मचा रही हैं धूम ||


हे मेघा बरसो अभी, प्यारी लगे फुहार 
यूँ हरियाई है धरा,कर धानी श्रृंगार ||

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10.सुश्री महिमा श्री जी 

1.

सावन ऋतु आई 
अति पावन 
मनभावन 
कारी घटा छायी
हर हर कर नद नाल 
इतराए 
पेड़ पोधे गदराये 
पत्ता पत्ता डाली डाली 
संग संग झूमे गाये 
जब जब मेघ बरषे 
जीव जंतु हर्षे 
तन मन भीगा जाए 
भूले सब ताप हिय की 
वसुधा यूँ हरियाई 
जैसे हो दुल्हन की गोदभराई 
मेहँदी रच हाथो में 
सखी सहेली 
पहन हरी चूड़िया 
खूब खन खनाये 
ओढ़ हरी चुनरी 
हवा संग लहराए 
गीत गाये सावन के
सपने सजाये साजन के 
झूले पे ले पींगे 
मिल सब खिलखिलाए 
सावन ऋतू आई 
अति पावन 
मनभावन

 

2.

सावन आया तो

बारिश भी हुयी

हरियाली छाई तो

भींगी मैं भी

भींगा मन भी कई तरह से  

जो देख रहा था

तेज बौछार के साथ

आये हवा के झोकें

उड़ा ले गए थे

 घास फूस से  बने औ प्लास्टिक से  ढके छत को

रिस रहा था पानी

चंद ईटो और गारे से बनी दीवारों से

बह गया था सारा समान

जो सड़क पर  फैलाये   गए थे

धुप में सुखाने को

सीलन की दुर्गन्ध हटाने को

वे बटोर रहे थे अपने वस्तुओ को

जो बहने से बच  गयी थी

कुछ अपने छत को बचाने में लगे हुए थे

रख रहे थे उस पे टूटी ईटे

पर पानी तो घुस आया था घर में

बिन बुलाये मेहमान की तरह

कब जाएगा ये तो  उसकी मर्जी

पैरो को समेट  चौकी पर वे  बैठे

टपकते पानी से भींग रहे थे

बतिया रहे थे

अब तो कुछ दिन पानी का साथ रहेगा

अंगीठी तो डूब चुकी है

अब फाके में ही दिन रात रहेगा

पर उनके बच्चे बेखबर

सड़क के कीचड़ सने बहते पानी में

अधनगें खेल रहे थे

छप्प छप्प छपाक

हंसी फुट रही थी सूखे गालो पे

चला रहे थे नाव

गदाबदते बजबजाते नालो में

जो बारिश के पानी में आप्लावित हो रहा था

सावन आया तो

 बारिश भी हुयी

भींगी मैं भी कई तरह से  

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11.डॉ० प्राची सिंह 

 

मलय बयारें सावन की ले बूंदों का रिमझिम गुंजन

अंतर में प्रिय स्वप्न जगा, महकाएँ चितवन घर आँगन...

 

झूम धरा पर नाच उठी, आवृत दस्तक पग-थापों की,

अष्ट-दिशा में गूंज उठी, कजरी-मल्हार अलापों की,

पींग बढ़ा मन झूमा फिर, थामे अम्बर, भर आलिंगन

मलय बयारें सावन की ले बूंदों का रिमझिम गुंजन......

 

घट बरसे, तर-तर चूनर, पदचापों में छप-छप के स्वर,

शोर मचा खनके कँगना, हर बंध तोड़ छनकी झाँझर,

हिय-धड़के पग-पग थिरके, घन-घोर घटा का सुन गर्जन  

मलय बयारें सावन की ले बूंदों का रिमझिम गुंजन......

 

भाव रंधी भीनी मेहँदी, उर महकाए निश-प्रात खिले,

नव-कोंपल नव-पात ढले, रच हस्तों में जज़्बात खिले,

हाथों में प्रिय प्रीत सजा, मन मोर करे आतुर नर्तन

मलय बयारें सावन की ले बूंदों का रिमझिम गुंजन.....

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12.श्री सत्यनारायण सिंह जी 

 

  1. (१)

    सावन आते ही मिटा, दग्ध ग्रीष्म संत्रास.

    रिमझिम बरसे मेघ घन, बुझी धरा की प्यास..

    बुझी धरा की प्यास, लुभाती प्रकृति सुहानी.

    सुन्दर मोहक साज, ओढ़कर चुन्नी धानी..

    कहे सत्य कविराय, विरह प्रिय जिनके खाते.

    गाती कजली गीत, गुजरिया सावन आते..

     

    (२)                                                                         

    मन को जब भाने लगे,मधुर सावनी गीत.

    समझो तब मन को मिला, जनम जनम का मीत..

    जनम जनम का मीत, मान संवाद निभाता.

    नभ में काले मेघ, यथा मन मोर रिझाता..

    कहे सत्य कविराय, सुखद सावन उन सब को.

    प्रिय का प्यारा संग, लुभाता जिनके मन को..

     

    (३)

    शिव का सावन आ गया, देने को वरदान.

    खुदा रहम करते दिखे, पाक माह रमदान..

    पाक माह रमदान, साथ हैं दोनों आये.

    धर्म जात समुदाय, भूल सब मिलजुल गाये..

    कहे सत्य कविराय, पिता वह सारे जग का.

    खुदा पाक रमदान, कहो या सावन शिव का..

 

2. सावन के दोहे

 

श्रवण नखत के योग से, हो सावन संयोग

सजन मिलन सुखकर जहाँ, दुखकर लगे वियोग।।

 

चहु दिश हरियाली जगी, जगे भाव प्रिय सुप्त

सावन मधुमासा लगे, मादकता से युक्त।।

 

दादुर झींगुर मोर सब, पपीहा संग चकोर

सभी कहें मन भावना, पर सावन चितचोर।।

 

रच मेहंदी हांथ में, गोदन अंग गुदाय

सावन में सज गोरियां, पिय को रही लुभाय।।

 

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13.श्री केवल प्रसाद जी 

 

वीर छन्द.... मात्रा 16-15 चरणांत में गुरू लघु-21 //

 

तपता जेठ चले लू अंधड़, सूरज आग उगलता जाय।
पेड़ झुलस कर दिखते नंगे, पत्ते झाड़ी में छिप जाय।।
हर हर हर हर चले हवा ज्यों, हाहाहूत बवन्डर छाय।
नील गगन में धूल समाया, क्षितिज लाल आंखें दिखलाय।।
डरे-डरे हैं जन मन खग-पशु, नदिया-ताल सूख उड़ जाय।
पवन पहन कर सागर माला, झट से अम्बर पर चढ़ जाय।।
मेघ चढ़ा है ऐरावत पर, गरज-गरज कर हिय धड़काय।
बिजली चमक रही है नभ में, जैसे आल्हा की तलवार।।
घिरा मेघ ज्यों काली मैया, लप-लप कर जिभ्या चमकाय।
भुव पर केश झरै चांदी से, कृषक झूम-झूम मस्ताय।।
चातक-पपिहा टुक-टुक देंखें, दादुर टर्र-टर्र टर्राय।
तड़ तड़ तड़ तड़ ओले जैसे, बूंदें गिरे, धरा घबराय।।
झमझम-झमझम बरखा बरसे, उपवन झूम-झूम लहराय।
बालक घर-आंगन में नाचें, वन में मोर पंख फैलाय।। 
रिमझिम-रिमझिम सावन बरसे, अखियां बरस-बरस रह जाय।
यादें मां-बाबुल की आती, निमकौड़ी संग बहुत सताय।।
सखी-सहेली पुरवाई मन, अठखेली-मसखरी सुहाय।
निमकौड़ी की गंध सुहाती, सावन झूम-झूम महकाय।।
निमकौड़ी के खेल निराले, खाट, आम, छप्पर-घर भाय।
निबिया की डाली पर झूला, झूलें संग ले सखि लिवाय।।
पेंग बढ़ावै नभ तक जावैं, नीचे आय जिया धड़काय।
नारी मन जब कजरी गातीं, हरी चूडि़यां मन को भाय।।
पूजा शिव भोले की करती, मेंहदी-श्रृंगार सजाय।
चौपालों में विरहा-आल्हां, गाते तान खींच तलवार।।
गली-गांव में मेले लगते, अखाड़ों में दंगल-धमाल।
एक से एक डटे हैं जोधा, हाथी-गैंडा-लम्बू राम।।
बड़े मजे से मारे बाजी, गोलू-तेलिया पहलवान।
आता जोश कृषक को जैसे, हल-बैल संग जोते खेत।।
जड़हन रोपे मेढ़ संवारे, गायें तब आल्हा-मल्हार।

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14.श्री अरुण शर्मा 'अनंत' जी 

 

सजी धजी हरी भरी वसुंधरा नवीन सी,

फुहार मेघ से झरी सफ़ेद है महीन सी, 

नया नया स्वरुप है अनूप रंग रूप है,

बयार प्रेम की बहे खिली मलंग धूप है, 

हवा सुगंध ले उड़े यहाँ वहाँ गुलाब की, 
धरा विभोर हो उठी, मिटी क्षुधा चिनाब की 

रुको जरा कहाँ चले दिखा मुझे कठोरता

हजार बार चाँद को चकोर है पुकारता 
विदेश में बसे पिया, सुने नहीं निवेदना
अजीब मर्ज प्रेम का, अथाह दर्द वेदना

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15.श्री नीरज मिश्रा जी 

 

रिमझिम रिमझिम आई बरखा । 
रंग हज़ारों लायी बरखा ।

 

गाती कोई गीत हवाएं । 
छेड़ रही संगीत हवाएं । 
चारों दिशाओं को महकाती ,
जाने न जग की रीत हवाएं ।

 

मौसम कुछ मस्ताना सा है । 
दिल अपना दीवाना सा है ।

नाच उठी है धड़कन मेरी ,
कोई बना अफसाना सा है ।

 

प्यासी धरती झूम उठी है । 
सदियों की ये प्यास बुझी है । 
जिसकी दुआएं मांगी हमने । 
आई देखो वो ही घडी है ।

 

काले बादल घिर घिर आये । 
बिजली कड़के दिल धड़काये । 
इस बेदर्दी सावन में अब ,
पिया मिलन की याद सताए ।

 

तनहा कैसे गुज़रे सावन । 
पास न हो जब मेरा हमदम । 
कहती है दिल हर एक धड़कन । 
मिलने अब आजा ओ प्रियतम ।

 

रिमझिम रिमझिम आया सावन । 
रंग हज़ारों लाया सावन ।

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16.श्री विजय निकोर जी 

 

बचपन का बीता सावन
याद है?
बचपन का वह सावन का मौसम
जब ताल में उछलते पानी के तल पर तैरती
हमारी नावें बहुत पास आ जाया करती थीं,
और तुम कुछ शर्मीली-सी
उस बारिश में भीगी-भीगी
हल्के-से मुस्करा देती थी।
हमारी नावों की परस्पर
वह हल्की-सी टक्कर,
और सारी प्रकृति को अरुणित करती
तुम्हारे चेहरे पर वह लाज की लाली,
आज भी याद है मुझको। तुमको भी ?

समय की पतवार हमें, जाने कहाँ छोड़ आई,
नाव तुम्हारी कभी दूर, कभी पास  चली आई
और फिर हो गई दूर इतनी कि बिंदु-सी लगी।
 
मैंने गई बारिशों की बाद कई बार
इन्द्रधनुषी रेखाओं पर सवार,
तुम्हें स्नेह का संदेशा भेजा था, मिला होगा।
उन रंगों ने क्या कहा, न कहा, सुना तो होगा।
क्षमाप्रार्थी हूँ, बहुत कुछ कह बैठा, रहा न गया,
श्रद्धाएँ महानदी-सी, उन रंगों पर उतर-उतर आईं,
भावनाएँ अग्निओं के ज्वार-सी, उमड़-उमड़ आईं।
स्नेह में आवेश, आवेश में ज़िन्दगी के सुनसान की पीड़ा,
उस पीड़ा में लिपटी ... बचपन के बिछड़े प्यार की वेदना,
मेरी जीवन-सन्धया के मौन में, भर्राई आवाज़ में,
तुम्हें दूँ तो क्या दूँ,  प्रिय  मैं  कुछ  सोच  न  सका,
दिए न दिए का दर्द, तुम्हारा अभाव, घाव की तरह,
किसी पुराने अपराध की तरह, मुझको खलता रहा।
 
आज फिर इन भीगी भटकती हवाओं में मैं
बारिश की आहट, तुम्हारी पुकार सुनता हूँ मैं,
तुम कैसी हो, कब सोई, कब जागी, कब रोई,
यह सब सुनने को कितना अब आकुल हूँ मैं,
इस सावन, अगली बारिश की इंद्रधनुषी रेखा पर
प्रिय, हो सके तो तुम भी अपना संदेश भेज देना।

_______________________________________________________________

 

17.श्री आशीष नैथानी 'सलिल' जी 

 

नवगीत  " सावन सूखा जाए "

सावन सूखा जाए, रे मनवा 
सावन सूखा जाए |

बूढ़ी आँखें भीतर रोती
इन आँखों में सुबह न होती,
बाहर बरसे रिमझिम सावन
भीतर चुप्पी छाए |
सावन सूखा जाए || 

घर की सीढ़ी छत से कहती 
इन पलकों से गँगा बहती |
बेटा जिसको गोद में पाला
लौटके घर ना आए |
सावन सूखा जाए || 

नहीं बनाता कश्ती कोई 
इंद्रधनुष की छटा भी खोई |
ओ परदेशी !  कोई कैसे 
सब यादें बिसराए |
सावन सूखा जाए || 

प्राण-पखेरू उड़ जाएंगे
लौटके पंछी घर आएंगे |
आँख लगी चौखट पर कबसे
तू कब लौटके आए |
सावन सूखा जाए || 

मिट्टी हुई गाँव की पत्थर 
तिनका-तिनका टूटेगा घर |
माँ का दूध कहे करुणा से
आकर कर्ज चुकाए |
सावन सूखा जाए || 

सावन सूखा जाए, रे मनवा 
सावन सूखा जाए ||

_______________________________________________________________

 

18.श्री चन्द्र शेखर पाण्डेय जी 

 

त्रिभंगी छंद 

सावन बहुरंगी, कहीं उमंगी, कहीं अनंगी, है लगता।

भावत अड़भंगी, शिव मनरंगी, मस्त पवन सा, है चलता।

बेधे यह तनमन, चितवन उपवन, चलता सबको, यह छलता।

है कौन धरा पर, जीव चराचर,जिसके मन को, ना रमता॥

 

सधवा का सावन, बड़ा सुहावन, आग बुझाए, ना तपता।

उस बहुत अभागन, देश परायन, मात बहन का, मन जलता।

जो वीर तिरोहित, अतुल सुशोभित, सीमा पर जा, तप करता।

सिंदूर धुले तिय, बलि चढते प्रिय, दीपक कुल का, है बुझता।।

 

इनकी मति मारी, अजब विकारी, श्वान चलित यह, शासन है।

कटवाते ये सर, तरकश धर कर, जयचन्दों का, राजन है।

ले खींच सराशन, मार दुशासन, पलट कुशासन, पार्थ बनो।

कर धूसरित धूल, उखाड़ समूल, रिपु मर्दन को, आज ठनो।।

_______________________________________________________________

 

19.श्री अरुण कुमार निगम जी 

 

1.कुण्डलिया छंद 

 

सावन में होता रहा, कभी पवन का सोर
अब ना जियरा झूमता, ना बन नाचे मोर, 
ना बन नाचे मोर, नहीं सावन पहले सा,
पहुँचाती परदेस, घटाएँ नहीं सँदेसा
पुरवइया नहिं ढाय, गज़ब ना लगे लुहावन, 
अब गीतों में कैद, रह गया प्यारा सावन.

 

2. सावन पर आल्हा छंद (१६-१५ पर यति, अन्त में गुरु-लघु)

देख रहा क्या आँखें फाड़े , ओ मानव मूरख नादान

मैं ही तो तेरा सावन हूँ , आज मुझे तू ले पहचान ||

मौन खड़ा हूँ लेकिन कल तक,पवन किया करती थी शोर

शुरू नहीं होता था सावन, ,बादल देते थे झकझोर ||

 

उधर चमक ना पाती बिजली, इधर नाचते वन में मोर

मोर लापता वन गायब अब, कहाँ ले गए काले चोर ||

दादुर और  पपीहे गायब, झींगुर भी भूला है तान

टर्र-टर्र वाले मेंढक भी, बाँध रहे अपना सामान ||

 

बरखा बरसी अभी नहीं थी, आती थी नदियों में बाढ़

पगडण्डी-कीचड़ का रिश्ता, इस मौसम में खूब प्रगाढ़ ||

मैं लाता हूँ नागपंचमी , तू डसता है बनकर नाग

मैं ही लाता हूँ हरियाली, जिसे जलाता तू बन आग ||

 

चोट लगी वृक्षों को जब भी , होता घायल यह आकाश

रो न सकी हैं आँखें इसकी  , बादल इतना हुआ हताश ||

आने वाले कल से छीनी , तू ने कलसे की हर प्यास

आज मनाता जल से जलसे, कल की पीढ़ी खड़ी उदास ||

 

कौन करेगा अर्पण-तर्पण , कौन करेगा तुझको याद

पीढ़ी ही जब नहीं रहेगी, कौन सुनेगा तब फरियाद

तेरे हित में बोल रहा हूँ, कर्मों को पावन कर आज

अहम् त्याग कर फिर से मानव,सावन को सावन कर आज ||

_____________________________________________________________

 

20.श्री सुलभ अग्निहोत्री जी 

 

श्याम जाने कौन कोने में पड़ा दरपन ?
क्या करे श्रंगार निष्ठुर के लिये जोगन !
बदलियों के साथ सारे तोड़ कर रिश्ते
राधिका की आँख में आकर बसा सावन ।

___________________________________________________________

 

21.आ० विजयाश्री जी 

1.

हरीतिमा है

वन औ उपवन

सावन मास

 

बरसे घटा

मनहर है छटा

सावन मास

 

मयूर नृत्य

रिमझिम फुहारें

सावन मास

 

भीगता मन

खिलती है मेहँदी

सावन मास

 

सुहाग पेटी

सिंधारा औ घेवर

सावन मास

 

श्रावणी तीज

शिव पार्वती पूजा

सावन मास

 

हर मंदिर

ठाकुरजी का झूला

सावन मास

 

ब्रज में तीज

श्रीकृष्ण संग राधा

सावन मास

 

वृन्दावन में

मच रही है धूम

सावन मास  

 

झूलो हिंडोले

है हरियाली तीज

सावन मास

 

हार श्रृंगार

रिझाये है प्रियतम

सावन मास

 

सब निमग्न

प्रिया औ प्रियतम

सावन मास

 

चली मायके

बेटियां औ बहनें

सावन मास

 

भाई कलाई

बांधे बहना राखी

सावन में

 

उल्लास भरे

हर घर के द्वार

सावन मास

 

2.

सावन में छाए हैं कजरारे बदरा

बोले पपीहा और नाचे मयूरा

 

धरा पर आई हैं बरखा बहारें

कोयल की गूंजें मीठी पुकारें

 

धरा का पुलकित अंगना है सारा

बरखा की बूंदों ने बदला नज़ारा

 

बागों बगीचों में हलचल मची है

हर्षाये लोगों को राहत मिली है

 

इठलाती बलखाती पुरवैया डोले

फूलों -कलियों संग करती किलोलें

 

दमकती है चपला करती इशारे

मनवा तो उसका पी-पी पुकारे

 

संग बहनों सखियाँ के झूलों का मौसम

मिलन-औ-जुदाई के गीतों का मौसम

 

तन मन में सबके जगाती उमंगें

बरखा की शीतल रिमझिम फ़ुहारें

 

मेहंदी की भीनी सी ख़ुशबू जो महके

तन मन में अजब सी चाहत है चहके

 

सिसकती हैं सांसें सहमी सी धड़कन

ये कैसी अगन में सुलगती है बिरहन

 

पिव-पिव उसका जिया पुकारे

कब आओगे प्रीतम घर के द्वारे

 ______________________________________________________________

 

22.श्री दयाराम मेठानी जी 

 

रिश्तों में हो प्यार की फुहार तो सावन है जिन्दगी,
मिट जाये वतन के वास्ते तो पावन है जिन्दगी,
जगत में मरना मिटना तो सबको है इक दिन यहां,
काम आ सकें किसी के तो मन भावन है जिन्दगी। 

_______________________________________________________________

 

23.श्री अलबेला खत्री जी 

 

1.जब सावन आग लगाता है-


जब सावन आग लगाता है, 
जब सावन आग लगाता है


वज्र टूटते हैं छाती पर, सांसों पर बन आती है 
चुपके चुपके ख़ून के आँसू आँखें रोज़ बहाती हैं 
अरमानों के फूल भी काँटे बन जाते उन लम्हों में 
विरहन को जब परदेसी सजना की सुधि सताती है 
दुनिया का सारा चन्दन भी  
जलन मिटा नहीं पाता है 
जब सावन आग लगाता है, 
जब सावन आग लगाता है



तड़प तड़प कर जागा करते, सुलग सुलग कर सोते हैं 
सुबक सुबक कर, सिसक सिसक कर, फूट फूट कर रोते हैं 
लिपट लिपट कर रह जाते हैं अपनी ही परछाई से
तन्हाई के शोक पर्व में दामन ख़ूब भिगोते हैं 
अंग अंग अंगारा बन कर 
तृषित देह दहकाता है 
जब सावन आग लगाता है, 
जब सावन आग लगाता है



घर तो घर, बाहर भी पग पग पर पीड़ा का अनुभव है 
सूनापन ही सूनापन  है, न  झूला  न कलरव है 
अंतर्व्यथा कथा लम्बी है, कौन सुनेगा "अलबेला"
तिनका तिनका बिखर रहा, सपनों का हर इक अवयव है 
भंवरों का गुनगुन भी बैरी 
दिन भर जान जलाता है 
जब सावन आग लगाता है, 
जब सावन आग लगाता है

 

2. सावन के दोहे 

सावन आया झूम कर, नाचे मन का मोर 
बरखा बरसे रात भर, गर्जन हो घनघोर   

कागा बोला कागली, चल तू मेरे साथ 
सावन में मस्ती करें, ले हाथों में हाथ 

बिल्ली मौसी गा रही, मीठी कजरी  आज 
तबले पर संगत करे,  मोटू मूषक राज 

भौंरा डोरे डालता ,  कलियाँ  भूली लाज 
भैंसा बोला भैंस से, चलो देखने ताज 

भाजी वाले कूटते,  दुगुने तिगुने भाव 
जान जले है जेब की, जैसे जले अलाव 

मैया भजिये तल रही, लगा स्वाद का चाव  
बालक घर से चल पड़े, ले कागज़ की नाव 

_______________________________________________________________

 

24. श्री अजीत शर्मा 'आकाश' जी 

1.[एक]
सावन के दिन आ गये , पड़ने  लगी फुहार

झूला झूले  नायिका ,  गाये  गीत-मल्हार .

गाये  गीत-मल्हार , बसा है प्रिय धड़कन में

जिसको करके याद टीस उठती  है मन में.

दृश्य प्रकृति के नहीं लग रहे हैं मनभावन

जाने  कब  प्रिय को लेकर  आयेगा सावन . 

.

[दो]
अब तो भाते ही नहीं  सावन के  दिन-रैन

प्रिय की यादों ने किया तन-मन को बेचैन .

तन-मन को बेचैन,  न रिमझिम बरखा भाये

पपिहे  की  पी-पी   व्याकुल मन को  तड़पाये .

बिजली,   बादल,   बूँदें   बैरी लगते हैं सब

काटे  कटती नहीं  प्रतीक्षा की घड़ियाँ  अब .

2. रिमझिम-रिमझिम बरखा

ले आया सावन ।

धरती से नीले नभ तक छाया  सावन ।

 

नाचे मन का मोर

सुरीली तानों पर

खुशियों का सागर बन लहराया सावन ।

 

तन- मन में  फिर

शोख़ उमंगें जागी हैं

शायद प्रिय का  सन्देशा लाया सावन ।

 

धरती को हरियाली की

चूनर  पहना

अपने  मन में  कितना हर्षाया सावन ।

 

बादल, बूंदें, ख़ुशहाली ,

झूले,  मस्ती   

क्या-क्या तोहफ़े देगा मनभाया सावन ।

 

पूछा ,  तेरा बदली से  

क्या रिश्ता है  ?

मन ही मन सकुचाया, शर्माया  सावन ।

____________________________________________________________________

 

25. डॉ० बृजेश कुमार त्रिपाठी जी

 

मेघ सलोने 
घिर गया अम्बर 
सावन आया,,,,,१ 

माँ चिंतातुर 
मस्ती में डूबे सारे 
भीगे बालक ,,,,,,२ 

किससे बोलूं 
जिया मैं कैसे खोलूं
खोये प्रीतम,,,,,३ 

बदरा बरसें 
तुम क्यों न आये 
अखियाँ भीगीं,,,,,,४ 

वर्षा संयोग 
सतर्कता बरतो 
लगें न रोग,,,,,,,५ 

सुख संयोग   
प्रियतम वियोग 
शोला सावन,,,,,,,६ 

________________________________________________________________

26. श्रीमति मंजरी पाण्डेय जी

 

कजरी

अबकी सावन मे मेला घुमाय द पिया

सिनेमा देखाय द पिया ना

 

१ – नवकी सडिया पहिर के

हम चलब तोहरे सङ्गे

हमके सोने क सिकडी

गढाय द पिया ! मेला .....................

 

२ – सबके बदे नानखटाई

हमके रबडी मलाई

रेवडी चूडा भी तनकी

किनाय द पिया  ! मेला .......................

 

३ – मुन्नी बदे चक्की चूल्हा

तीर धनुष गुड्डू के ले ला

हमके हरियर चूडिया

पहिराय द पिया  ! मेला  ..........................

 

४ – चरखी झूला झूलाई द

भबिस तोता से बिचराई द

गरमागरम जिलेबिया

खिवाय द पिया  !  मेला ......................

 

५ –   भईल ढेर दिना गईले

अऊर माईयो से मिलले

बाटे पयडे मे नईहर

घुमाय द पिया !  मेला ......................

 

६ –     बरसी बरखा अबर

खूब होब तर-बतर

हमरे मनवा क सधिया

पुराय द पिया !  मेला .........................

 

७ – सारनाथ द घुमाय

“मञ्जरी”  से द मिलाय

सोन्ध –सोन्ध भूजल भुट्टा

खिवाय द पिया !   मेला .......................          

__________________________________________________________________ 

27. श्री अतेंद्र कुमार सिंह ‘रवि’ जी

 

सावन में इक बिरहन की व्यथा - गीत

 

चहुँ ओर हरियाली है मन में क्यूँ उदासी है

कहाँ है ये प्रियतम हमरे रुत ये भी प्यासी है

 

कहतीं हैं सखियाँ हमरी सावन का है महीना

बागों में है झूले दिखते मन लागे कहीं ना

दुखता है ये जियरा पल पल पीर न जरा सी है

कहाँ है ये प्रियतम-------------------------------

 

बरसे रे रिमझिम बदरा तड़के हो बिजुरिया

सिहर सिहर जाये मनवां तड़पे रे पिरीतिया

चौखट पे बैठ सोचे आई रुत ये कैसी है

कहाँ है ये प्रियतम------------------------------

 

दिखते हैं हरियर पौधे हँसता रे उनका मन

पहिनके भी हरियर सारी जलता क्यूँ मेरा तन

असुअन से भीगे अचरा दूर मेरा माझी है

कहाँ है ये प्रियतम------------------------------

 

चहुँ ओर पानी पानी बहे जो ये ठंडी पवन

कोई जा संदेशा दे दे कैसी है ये बिरहन

कास आ जाए सुनिके ओ दूर उनसे कैसी है

कहाँ है ये प्रियतम------------------------------

 

अब जाके सुगना तू भी ये हाल मेरा कहि दे

यूँ बीत न जाए सावन लोरवा से अंखिया भरिके

आ तो वो जायेंगे यूँ आस हमरी ऐसी है

__________________________________________________________________ 

 

28. श्री संदीप कुमार पटेल जी

 

गज़ल

हरे हैं ठूंठ भी हर ठौर है रंगीन सावन

धरा को यूँ सजाने में हुआ है लीन सावन

 

हवा मल्हार सरगम बूँद बादल ढोल पीटें  

लगे संगीत का हमको बड़ा शौक़ीन सावन

 

कहीं पर बाढ़ लाता है कहीं लाये है सूखा

करे यूँ जुल्म भी कितने बड़े संगीन सावन

 

बहाते अश्क जब जब हम विरह की रात में तब

हमारे साथ रोता है लगे ग़मगीन सावन

 

बरसती बूँद में दिखने लगे है अक्श सजनी का

तड़प दिल में बढ़ाये औ करे नमकीन सावन

 

बरसती बूँद को देखो तो बढे मुस्कान चहरे में

बढाये रंगते सूरत हुआ प्रोटीन सावन

 

उडाये छत गरीबों की टपकती रात दिन जो

भुलाये पल में बचपन “दीप” कितना दीन सावन

______________________________________________________________________

29. आदरणीया कल्पना रामानी जी

घनाक्षरी-

सावन के मेघ छाए,बरखा बहार लाए।

मन में उमंग जागी,हवा मंद मंद है।

बरसे अपार घन, शीतल हुआ है तन।

बगिया में फूल खिले, बिखरी सुगंध है।

नभ में मची धमाल, धरती हुई निहाल।

गीत हुए डाल डाल, पात पात छंद है।

आँगन बूँदों की लड़ी, कागज़ की नाव बढ़ी।

ढोलक पे थाप पड़ी, उत्सव बुलंद है। 

_____________________________________________________________ 

30. आदरणीया ज्योतिर्मयी पन्त जी  

 

हाइकु -सावन
 १.

सावन वर्षा
बुलबुले ख़ुशी के 
फूलें  बतासे .

२.

बूँदें जो गिरीं
पुलकित हुई धरा
फैली सुगंध .

धरा तपती
मेघ मशक भरें
जल छिडकें .

४ .

गगन मंच
बहुरूपिये नाचें
पावस घन .

पुनर्जीवन
पा संजीवनी बूँदें
अंकुर उगे .
________________________________________________________________

31.  श्रीमति अन्नपूर्णा बाजपेई जी

 

जरा देखो तो आया सावन

घनघोर घटाएँ लाया सावन ।

बूंदे छन छन करती ऐसे

पाँव मे पायल, लाया सावन ।

तपती वसुधा , हलक था

सूखा, झमाझम लाया सावन ।

हरा भरा आंचल सब ओर

नूतन हरियाली लाया सावन ।  

मन मयूर नाचे पीहू पीहू

राग मचाता आया सावन ।

हाथ मे मेहँदी डाल पे झूले

चूड़ी हरियाली लाया सावन ।

_________________________________________________________________ 

 

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इस सुन्दर कार्यक्रम के सफल संयोजन, सञ्चालन एवं रचनाओं के इस संकलन हेतु आपको साधुवाद आदरणीया डॉ प्राची जी !

आदरणीया प्राची दीदी, महोत्सव अंक 34 त्रिदिवसीय से द्विदिवसीय होने के बावजूद भी सफलता की एक नई ऊंचाई तक पहुंचा इस हेतु आपको एवं समस्त सहभागी गुरुजन एवं मित्रों को हार्दिक बधाई, सभी रचनाओं का एक साथ संकलन आपने किया इस हेतु आप विशेषतौर से हार्दिक बधाई स्वीकारें.

आदरणीया मंच संचालिका डॉ प्राची जी सादर,

              संशोधित रचना का संकलन शायद  भूल से  नही  हो  सका  ऐसा प्रतीत होता है .   किन्तु   सफल संचालन एवं समस्त रचनाओं के संकलन हेतु आपका हार्दिक बधाई,  

क्षमा कीजिये आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी ..

अब संकलन में आपकी संशोधित रचना को एडिट कर दिया गया है.

सादर.

आदरणीया डॉ. प्राची जी, सादर

     आदरणीया क्षमा का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि सम्पादन कार्य ही ऐसा है जिसमे इन भूलों को नकारा  नहीं जा सकता आपने संशोधित रचना शीघ्र एडिट कर दी अतएव आपका आभारी हूँ.

आ० सत्यनारायण शिवराम सिंह जी 

संकलन कार्य में पूरी सावधानी रखी जाती है.... दरअसल इस बार सिस्टम हैंग हो जाने के कारण एक बार पूरा का पूरा संकलन सेव न होने की वजह से गायब हो गया था, और सिर्फ बिना एडिट की गयी शुरू की १५-१६ रचनाएँ ही बचीं थी ...उस संकलन में खास याद रख कर आपकी रचना को संशोधित किया गया था.

दुबारा संकलन करने में आपकी पूर्व रचना में बदलाव करना ध्यान नहीं रहा.

अपेक्षित बदलाव संज्ञान में लाने के लिए धन्यवाद.

आदरणीय गुरुजनो नमस्ते, 

मैने आज अपनी ग़ज़ल को दोबारा पढ़ा, इसके मत्ले पे गौर फरमाएँ

//आज फिर देखो गरजने लगे हैं

अब्र यूँ झूम बरसने लगे हैं//

मुझे ऐसा लग रहा है इसमें इताए-जली दोष आ गया है क्यूंकी इस ग़ज़ल में हरफे-कवाफी "ने" है मगर शब्दों पे गौर करें "गरजने" एवं "बरसने" इसमें हरफे रवी "ज" एवं "स" है, इस लिहाज से ये हम काफिया नही हैंl क्या मेरी ये बात सही है??? 

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