आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश जी।इस लघुकथा को लिखने से लेकर पोस्ट करने तक मेरे मन में भी एक अंतर्द्वंद चल रहा था कि इस लघुकथा को पाठक किस सोच से देखेगा।क्या यह इस विषय पर सही बैठेगी या नहीं।इसलिये मैंने कुछ बुद्धिजीवी साथियों से परामर्श लिया।ज्यादातर साथियों की राय थी कि यदि किसी पुरुष का वह अंग, जिस की वज़ह से वह पुरुष कहलाता है, छीन लिया जाय तो उसका जीवन तो निराधार हो गया।उसका पारवारिक, सामाजिक अस्तित्व ही छिन्न भिन्न हो गया।वह समाज में उठने बैठने लायक ही नहीं रहा।और जिस कारण यह सब हुआ, वह तो और भी शर्मानाक है।उसकी पीड़ा तो अंतहीन है।वह उस दर्द के साथ जीता है।अपने परिवार को भी संभालता है हालांकि उसका मन उसे जीवन से विमुख कर रहा है।लेकिन फिर भी वह एक ढहते हुए किले की तरह अपने असीमित दर्द को झेलते हुए खड़ा है।अब उसे समझ आ रहा है कि जीवन में चरित्र का क्या महत्व है।सादर।
//ज्यादातर साथियों की राय थी कि यदि किसी पुरुष का वह अंग, जिस की वज़ह से वह पुरुष कहलाता है, छीन लिया जाय तो उसका जीवन तो निराधार हो गया।उसका पारवारिक, सामाजिक अस्तित्व ही छिन्न भिन्न हो गया।वह समाज में उठने बैठने लायक ही नहीं रहा।और जिस कारण यह सब हुआ, वह तो और भी शर्मानाक है।उसकी पीड़ा तो अंतहीन है।वह उस दर्द के साथ जीता है।अपने परिवार को भी संभालता है हालांकि उसका मन उसे जीवन से विमुख कर रहा है।लेकिन फिर भी वह एक ढहते हुए किले की तरह अपने असीमित दर्द को झेलते हुए खड़ा है।//
आदरणीय तेजवीर जी, इस स्पष्टीकरण के लिए आभार. वैसे आप अपने इन वाक्यों को पूरा पढ़े तो आपको लगेगा कि आपके कहे अनुसार तो लघुकथा आपकी पंचलाइन के बाद आरम्भ होती है किन्तु आपने तो केवल पंचलाइन का कारण बताकर लघुकथा को समाप्त कर दिया. यहाँ दंपत्ति की दूरियों का कारण बस सस्पेंस के रूप में उभरा है. ढहते किले का दर्द बयान ही नहीं हो सका. सादर
हार्दिक आभार आदरणीय सीमा जी।इस लघुकथा को लिखने से लेकर पोस्ट करने तक मेरे मन में भी एक अंतर्द्वंद चल रहा था कि इस लघुकथा को पाठक किस सोच से देखेगा।क्या यह इस विषय पर सही बैठेगी या नहीं।इसलिये मैंने कुछ बुद्धिजीवी साथियों से परामर्श लिया।ज्यादातर साथियों की राय थी कि यदि किसी पुरुष का वह अंग, जिस की वज़ह से वह पुरुष कहलाता है, छीन लिया जाय तो उसका जीवन तो निराधार हो गया।उसका पारवारिक, सामाजिक अस्तित्व ही छिन्न भिन्न हो गया।वह समाज में उठने बैठने लायक ही नहीं रहा।और जिस कारण यह सब हुआ, वह तो और भी शर्मानाक है।उसकी पीड़ा तो अंतहीन है।वह उस दर्द के साथ जीता है।अपने परिवार को भी संभालता है हालांकि उसका मन उसे जीवन से विमुख कर रहा है।लेकिन फिर भी वह एक ढहते हुए किले की तरह अपने असीमित दर्द को झेलते हुए खड़ा है।अब उसे समझ आ रहा है कि जीवन में चरित्र का क्या महत्व है।सादर।
आदरणीय तेज वीर सिंह जी आप वास्तब में बहुत उम्दा विसंगति ढूढ़ कर लाए है. बधाई आप को इस बेहतरीन लघुकथा के लिए.
हार्दिक आभार आदरणीय ओम प्रकाश जी।
बेहतरीन कथा हुई है भाई तेजवीर जी हार्दिक बधाई स्वीकारें .
हार्दिक आभार आदरणीय लक्षमन धामी जी।
हार्दिक आभार आदरणीय कल्पना जी।यह लघुकथा एक सच्ची घटना से प्रेरित होकर लिखी गयी है।इसमें किसी को असहज़ होने जैसा कुछ भी नहीं है।सच थोड़ा कड़ुवा अवश्य लगता है। ऐसी बातें समाचार पत्रों, दूर दर्शन आदि पर इससे भी बुरे तरीके से पेश की जाती हैं।कुछ मामलों में हमें अपनी खुद बनायी लक्ष्मण रेखा को लांघना होगा।सादर।
अमानवीयता की पराकाष्ठा और पत्नी के विश्वास के ढहते किले का मर्म, विषय को सार्थक कर रहा है बधाई आपको आदरणीय तेजवीर जी ....शब्दों के चयन को लेकर माला जी से मै भी सहमत हूँ
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