आदरणीय साथिओ,
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बढ़िया रचना विषय पर, एक सफर में यात्रियों की मनोदशा का उचित वर्णन किया है आपने| बधाई आपको
स्पष्टीकरण हेतु आभार आपका. सादर
बहुत ही सारगर्भित लघुकथा कही है आ० डॉ विजय शंकर जीI कथा के विषय में जो नयापन है उसने सच में मन ही मोह लियाI यह उन कुछेक विषों में शामिल है जिन पर पर लघुकथाकारों को कलाम आज़माई करनी हैI दरअसल जहाँ इमानदार एनजीओ असंख्य लोगों के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाने में सफल रहे हैं वही इस "बिज़नेस" के कई घिनौने रूप भी हैंI आपने जिस पहलू को उजागर करना चाहा यह लघुकथा उसे उभारने में पूर्णत: सफल रही है जिस हेतु मेरी ढेरों ढेर बधाई स्वीकार करेंI
आदरणीय डॉ. विजय शंकर सर, वास्तव में एनजीओ जिस उद्देश्य से बनाये जाने लगे हैं, यह देखकर कोफ़्त होती है. समाज सेवा के नाम पर व्यवसाय आरम्भ हो गया है जिससे अच्छा काम करने वाले एनजीओ को भी नाहक ही संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है. आपने इस महनीय कार्य का स्वार्थ की भावना व्यवसायीकरण करने वाले लोगों पर तीक्ष्ण कटाक्ष किया है. इस शानदार लघुकथा पर बहुत बहुत बधाई. आपने ट्रेन के डिब्बे का चित्र भी साक्षात् कर दिया. घटनाक्रम का प्रवाह पाठक को बांधे रखता है. पुनः आपको ढेर सारी बधाईयाँ. सादर
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