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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-18 (विषय: पर्दे के पीछे)

आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,

सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" के पिछले 17 आयोजनों की अपार सफ़लता के बाद "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक 18  में आपका हार्दिक स्वागत हैI प्रस्तुत है:
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-18
विषय : "पर्दे के पीछे"
अवधि : 29-09-2016 से 30-09-2016 
(फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 29 सितम्बर 2016 लगते ही खोल दिया जायेगा)
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अति आवश्यक सूचना :-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2.  रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
4. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि भी लिखे/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
5. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
6. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।
7. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
8. आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है।
9. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। 
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यदि आप किसी कारणवश अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी।अभी तक तो मेरी खुद की ही सेहत परेशान करती थी मगर पिछले चार पांच दिन से मेरा लैपटॉप बहुत तंग कर रहा है।दो दिन से बंद पड़ा है।रात को बेटा आफ़िस से लौटा तो लघुकथा उसी के लैपटॉप से पोस्ट की।आपको इंतज़ार करना पड़ा, क्षमा चाहूंगा।आपका पुनः आभार।आदाब।

बेहतरीन कथानक।सुन्दर कथा।हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह जी

हार्दिक आभार आदरणीय सतविंदर जी।

कुछ हटकर लिखी गयी रचना और बढ़िया कथानक के लिए बधाई स्वीकारे भाई तेजवीर सिंह जी ।
मेरी लघुकथा विषय- "पर्दे के पीछे"

देशी-विदेशी दानदाताओं के उद्दात सहयोग से नर्मदा नदी के किनारे करीब 100 एकड़ में फैला भव्य आश्रम और गुरूकुल आध्यात्मिक की पुणयस्थली के रूप में विख्यात था। चमत्कार और पुण्यलाभ की आशा में दूर-दूर से श्रृद्धालु आकर भक्तिभाव से बाबा के चरणों में शीश नवाते और सद्वचनों का लाभ लेते। महिला गुरूकुल भी अपनी संस्कारवान शिक्षिकाओं के लिये प्रसिद्ध था। उस दिन करीब रात नौ बजे बाबाजी ने अपने कक्ष के पलंग पर विश्राम करने को उद्धत हुए। सेवक ने बादाम का गर्म दूध चाँदी के ग्लास में लाकर दिया। "आज प्रवचन सुनने बड़ी भीड़ थी"। बाबाजी ने सेवक से कहा। फिर बोले "जाओ, गुरुकुल में जो नई कन्या आई है उसे दीक्षा के लिये ले आओ"। सेवक ने जाकर कन्या को नहाधोकर दीक्षा के लिये तैयार होने को कहा। फिर उसे विशेष प्रसाद दिया। और बाबा के कक्ष में दीक्षा लेने भेज दिया। नशीला प्रसाद अपना असर दिखा रहा था। धीरे-धीरे कन्या बेसुध होने लगी और बाबाजी के हाथ उसके सुकोमल कंधे पर फिसल रहे थे...!!

ये लघुकथा मेरी सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित रचना है।
स्वागत है आपकी रचना का आदरणीया अपर्णा शर्मा जी। ऐसे ही कथानक पर इसी गोष्ठी में एक बेहतरीन रचना आ चुकी है, आप भी उसे पढ़कर लाभान्वित हों। मेरे विचार से यह रचना आपका बढ़िया प्रयास है, आपसे बेहतर रचना की अपेक्षा कर सकते हैं भविष्य में। यह रचना एक रिपोर्ट की तरह लग रही है मुझे, क्योंकि अंत प्रभावित नहीं कर रहा है। कोई तीखी पंचपंक्ति के साथ समापन तभी हो सकता था जब कन्या के साथ भी संवाद होता उसे कमज़ोर नहीं, सबला बताते हुए। रचना के शीर्षक के साथ 'मेरी लघुकथा' लिखने की आवश्यकता नहीं है। तथा अंत में केवल (मौलिक व अप्रकाशित) लिख देना पर्याप्त व अनिवार्य है। सादर

उम्दा प्रयास किया है आपने, सहभागिता के लिए बधाई स्वीकार करे।

दहन किसका

"जानते हो रावण की भूमिका करने वाला असली जिंदगी में भी रावण ही है, ऐसा कोई अवगुण नहीं जो इसमें नहीं हो|" रामलीला के अंतिम दिन रावण-वध मंचन के समय पांडाल में एक दर्शक अपने साथ बैठे व्यक्ति से फुसफुसा कर कहने लगा|

दूसरे दर्शक ने चेहरे पर ऐसी मुद्रा बनाई जैसे यह बात वह पहले से जानता था, वह बिना सिर घुमाये केवल आँखें तिरछी करते हुए बोला, "इसका बाप तो बहुत सीधा था, लेकिन पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी की भूल कर बैठा, दूसरी ने  दोनों बाप-बेटे को घर से निकाल दिया...”

“इसकी हरकतें ही ऐसी होंगी, शराबी-जुआरी के साथ किसकी निभेगी?"

"श्श्श! सामने देखो|" पास से किसी की आवाज़ सुनकर दोनों चुप हो गये और मंच की तरफ देखने लगे|

मंच पर विभीषण ने राम के कान में कुछ कहा, और राम ने तीर चला दिया, जो कि सीधा रावण की नाभि से टकराया और अगले ही क्षण रावण वहीँ गिर कर तड़पने लगा, पूरा पांडाल दर्शकों की तालियों से गूँजायमान हो उठा|

तालियों की तेज़ आवाज़ सुनकर वहां खड़ा लक्ष्मण की भूमिका निभा रहा कलाकार भावावेश में आ गया और रावण के पास पहुंच कर हँसते हुआ बोला, "देख रावण... माँ सीता और पितातुल्य भ्राता राम को व्याकुल करने पर तेरी दुर्दशा..., इस धरती पर अब प्रत्येक वर्ष दुष्कर्म रूपी तेरा पुतला जलाया जायेगा..."

नाटक से अलग यह संवाद सुनकर रावण विचलित हो उठा, वह लेटे-लेटे ही तड़पते हुआ बोला, "सिर्फ मेरा पुतला! उसका क्यों नहीं जिस कुमाता के कारण तेरे पिता मर गये और तुम दोनों को...."

उसकी बात पूरी होने से पहले ही पर्दा सहमते हुए नीचे गिर गया|

(मौलिक और अप्रकाशित)

बहुत सुंदर विषय पर सार्थक कथा, बधाई स्वीकारे भाई जी ।

सादर नमन आदरणीय सर|

दशहरा आने के पूर्व ही गोष्ठी में बेहतरीन उम्दा कथानक पर बेहतरीन भावपूर्ण रचना के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय चन्द्रेश कुमार छतलानी साहब।

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