परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 104वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब
असरार-उल-हक़ मजाज़ "लखनवी" साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"मुझ को ये भी न था मालूम किधर जाना था "
2122 1122 1122 22
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
(बह्र: रमल मुसम्मन् मख्बून मक्तुअ )
१. पहला रुक्न फाइलातुनको फइलातुन अर्थात २१२२ को ११२२भी किया जा सकता है
२. अंतिम रुक्न फेलुन को फइलुन अर्थात २२ को ११२ भी किया जा सकता है|
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 22 फरवरी दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 23 फरवरी दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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क्यूँ बग़ावत नहीं की हमने ज़माने के ख़िलाफ़
इश्क़ सच्चा था हमें हद से गुज़र जाना था |
अच्छी गज़ल कही जनाब अनीस शेख़ साहब ....
तुम मेरी जान हो ये आप कहा करते थे
हो के मुझसे जुदा तो आपको मर जाना था
तुम मेरी जान हो तुम ही तो कहा करते थे
जब हुये मुझसे जुदा तुमको तो मर जाना था (हमने एक कोशिश की है अगर आपको पसंद आए .....)
नादिर खान साहब ग़ज़ल को इतनी मुहब्बत देने के लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ
आ. भाई अनीस जी, हार्दिक बधाई।
शुक्रिया "मुसाफिर "जी
मोहतरम जनाब अनीस शेख़ साहब बहुत बहुत मुबारकबाद अच्छी ग़ज़ल के लिये
सोचते रह गए हम हौसला कर जाना था
आग के दरिया में हमको भी उतर जाना था |
क्यूँ बग़ावत नहीं की हमने ज़माने के ख़िलाफ़
इश्क़ सच्चा था हमें हद से गुज़र जाना था | बहुत ख़ूब सादर
बहुत बहुत शुक्रिया ज़ैदी साहब
जनाब अनीस साहिब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
मुहतरम समर साहिब के मशवरे पर ग़ौर कीजियेगा I
तस्दीक़ अहमद साहब ग़ज़ल तक आने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय अनीस शेख जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएँ। बाकी गुणीजन कह ही चुकें हैं।सादर
मिथिलेश वामनकर जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया आपकी दाद ने हौसला बढ़ाया है
मेरे कहे को मान देने के लिए आभार आपका।
मेरी कश्ती का मुक़द्दर ही बिखर जाना था ।
पर ये इल्ज़ाम भी तूफ़ान के सर जाना था ।।
तिश्नगी ले के वो आया है वहाँ से देखो।।
रिन्द को पी के जहाँ हद से गुज़र जाना था ।।
आ गया कैसे तेरे दर पे खुदा ही जाने ।
मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था ।।
आप हालात से कुछ देर तो लड़ते साहब ।
इतनी जल्दी भी नहीं आपको डर जाना था ।।
सारे शिकवे गिले काफ़ूर हो जाते दिल के ।
चाँद को चुपके से आँगन में उतर जाना था ।।
मुस्कुरा कर जो मेरा हाल वो पूछा मुझसे ।
दर्द मेरा तो सरे आम उभर जाना था ।।
वक्त के साथ रही होगी सबा की कोशिश ।
हुस्न को बहती हवाओं में निखर जाना था ।।
बाद मुद्दत के जो इक रात मिली थी तुमको।
मुन्तज़िर ख़्वाब थे कुछ देर ठहर जाना ।।
चल दिये छोड़ के तूफ़ां में वो तन्हा मुझको ।
इस तरह मैंने मुसीबत का सफ़र जाना था ।।
याद करते ही कहानी, वो हरा दिखता है ।
वक्त के साथ मेरा ज़ख्म जो भर जाना था ।।
इश्क़ का भूत चढ़ा सर पे उसे क्या कहिये ।
उम्र ढलने पे मियाँ कुछ तो सुधर जाना था ।।
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