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हा हा हा हा हा हा, हमारा तो ऐसा ही है आदरणीय माला जी । अब का बताएं आपको। कहीं से कहीं कुछ प्रयोग कर लेते हैं। आभार मेरा हौसला बढ़ाने के लिए।
पर्यावरण पर लिखी सुंदर कथा आदरणीया जी ।
आदरणीय कान्ता जी, बहुत क्लिष्ट रचना लिखी है आपने!कई बार पढने के बाद भी मैं कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाया हूं!यह भी हो सकता है कि लघुकथा के बारे में मेरा अल्प ज्ञान इस बारे में बडी रुकावट हो!फ़िर भी मैं आपके प्रयास की सराहना करता हूं!
हा हा हा हा हा हा, प्रयोग शायद अच्छे नहीं होते है !!!! समझ में नहीं आने पर भी बधाई देना आपका मुझे भा गया। कितनी ईमानदारी है आपकी बातों में आदरणीय तेजवीर जी ! आभार मेरा हौसला बढ़ाने के लिए।
आ० कांता जी,वेल मेन्टेन्ड अर्थ की क्या खूब कल्पना की है लघु कथा में सच में कभी कभी हम यही सोचते हैं की धीरे धीरे जंगल कंक्रीट में बदलते जा रहे हैं क्या होगा आगे चलकर किन्तु ये क्यूँ भूल जाते हैं की जंगल पेड़ पौधे नहीं रहेंगे प्रदूषण बढ़ता रहेगा तो इंसान ही कहाँ बचेंगे इस भाव को कल्पना को बखूबी शब्दों में पिरोया है आपने बहुत- बहुत बधाई .
दिल से आभार आपको आदरणीया राजेश कुमारी जी ,कथा को मान बख़्शने के लिए।
"ब हुत ही सार्थक रचना बनी है आदरणीया कांता जी , हर भाव के लिए बड़े ही सटीक प्रतीक चुने हैं आपने है ,
"पागल ? हाँ मैं पागल i धरती पर फिर से जंगल और कचरे का ख्वाब देखने वाला पागल "
क्या सही लिखा है ,किसी को नहीं चाहिए ऐसी धरती .. बधाई एक ज्वलंत विषय सार्थक तरीके से उठाने के लिए आपको ,आदरणीया
आभार आपको आदरणीया प्रतिभा जी , रचना के मर्म को समझकर मेरा हौसला बढ़ाने के लिए।
क्या बात हैं दी ..क्या ताना बाना बुना आपने ..ऐसे ही पागलो की जरूरत हैं | बढ़िया कथा ..सादर नमस्ते
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