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आईये पढ़े और लिखे ख्यातिप्राप्त रचनाकारो की कुछ रचनाये...

बहुत दिनों से मेरे मन मे विचार आ रहा था कि कैसे "ओपन बुक्स ऑनलाइन " परिवार के सदस्यों को साहित्य जगत के मशहूर रचनाकारों की रचनाओ को पढने और निकट से महसूस करने का मौका मिले ? इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैने इस फोरम की शुरुआत किया है, इसमे सदस्य गण मशहूर साहित्यकारों की लिखी हुई रचनाओ को उनके नाम का उल्लेख करते हुए लिख सकते है एवं पढ़ सकते हैं, इस फोरम को पूरी तरह से सदस्यों का रुझान साहित्य के तरफ करने हेतु किया गया है न कि किसी व्यावसायिक उद्देश्य से,
तो आइये लिखे एवं पढ़े कुछ अच्छे साहित्यकारों की बेहतरीन रचनाये .....

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शीर्षक : भूख
रचनाकार: मासूम गाज़ियाबादी

भूख इन्सान के रिश्तों को मिटा देती है।
करके नंगा ये सरे आम नचा देती है।।

आप इन्सानी जफ़ाओं का गिला करते हैं।
रुह भी ज़िस्म को इक रोज़ दग़ा देती है।।

कितनी मज़बूर है वो माँ जो मशक़्क़त करके।
दूध क्या ख़ून भी छाती का सुखा देती है।।

आप ज़रदार सही साहिब-ए-किरदार सही।
पेट की आग नक़ाबों को हटा देती है।।

भूख दौलत की हो शौहरत की या अय्यारी की।
हद से बढ़ती है तो नज़रों से गिरा देती है।।

अपने बच्चों को खिलौनों से खिलाने वालो!
मुफ़लिसी हाथ में औज़ार थमा देती है।।

भूख बच्चों के तबस्सुम पे असर करती है।
और लड़कपन के निशानों को मिटा देती है।।

देख ’मासूम’ मशक़्क़त तो हिना के बदले।
हाथ छालों से क्या ज़ख़्मों से सजा देती है।।
शीर्षक : अपाहिज व्यथा
रचनाकार: दुष्यंत कुमार

अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।

ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।

अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।

वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।

मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।

समाआलोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।
रचनाकार: दुष्यन्त कुमार
गज़ल-संग्रह: 'साये में धूप'


होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए ,

इस परकटे परिन्दे की कोशिश तो तो देखिए ।


गूँगे निकल पड़े हैं जुबाँ की तलाश में ,

सरकार के ख़िलाफ़ ये साजिश तो देखिए ।


बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन ,

सूखा मचा रही ये बारिश तो देखिए ।


उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें ,

चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए ।


जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ ,

इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिए ।

अकस्मात ही मिल गयी यह गजल ....बहुत  बहुत धन्यवाद,, आपने इसे संकलित  कर रखा है| 

बहुत बहुमूल्य पन्ना है| 

ye kavita harivansh rai bachhan ki likhi MADHUSHALA PART-3 ki hai............

वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।



चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।



घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।



हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।



धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।



दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।



पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।



सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।



बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।



मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।



कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।



और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।



आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।



यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।



सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।



वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला',
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।



कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।



श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।



एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।



बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।
शीर्षक :- क्या वह भी अरमान तुम्हारा
रचनाकार :- जानकीवल्लभ शास्त्री

क्या वह भी अरमान तुम्हारा ?

जो मेरे नयनों के सपने,
जो मेरे प्राणों के अपने ,
दे-दे कर अभिशाप चले सब-
क्या यह भी वरदान तुम्हारा ?

खुली हवा में पर फैलाता,
मुक्त विहग नभ चढ़ कर गाता
पर जो जकड़ा द्वंद्व-बन्ध में,-
क्या वह भी निर्माण तुम्हारा ?

बादल देख हृदय भर आया
'दो दो-बूँद' कहा, दुलराया ;
पर पपीहरे ने जो पाया, -
क्या वह भी पाषाण तुम्हारा ?

नीरव तम, निशीथ की बेला,
मरु पथ पर मैं खड़ा अकेला
सिसक-सिसक कर रोता है, जो -
क्या वह भी प्रिय गान तुम्हारा ?
कोशिश करने वालों की
- हरिवंशराय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan)

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
Achhi suruwat hai,
जानना
पहिचानना
फिर चाहना
फिर अपेक्षाएं करना
निराश होना
लड़ना ,झगड़ना
क्रोध ,अहंकार
के पोखर में नहाना
फिर

कभी न मिलने का संकल्प कर
विलोपित हो जाना
अपेक्षाओं को क्यों जाग्रत होने देना ?...........(copyright wid rakesh mutha )
Rakesh Narayan jee Bahut hi badhiya kavita aapney post kiya hai, aapko koti koti dhanyabad aur sri Rakesh Mutha jee ko bhi Dhanyabad,
शीर्षक :फिर कर लेने दो प्यार प्रिये
रचनाकार: दुष्यंत कुमार

अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..
आप लोगों के समक्ष स्वर्गीय श्री कैलाश गौतम जी की एक प्रासिद्ध रचना रख रहा हूँ. मैं उन खुशनसीबों मैं से एक हूँ जिनको उनके बारे मैं नजदीक से जानने का अवसर मिला. आप यहाँ " target="_blank"> उनकी ही आवाज़ में इस कविता को सुन सकते हैं.



ई भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा
धरम में करम में सनल गाँव देखा
अगल में बगल में सगल गाँव देखा
अमवसा नहाये चलल गाँव देखा॥

एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा
अ कान्ही पे बोरी, कपारे पे बोरा
अ कमरी में केहू, रजाई में केहू
अ कथरी में केहू, दुलाई में केहू
अ आजी रंगावत हईं गोड़ देखा
हँसत ह‍उवैं बब्बा तनी जोड़ देखा
घुँघुटवै से पूँछै पतोहिया कि अ‍इया
गठरिया में अबका रखाई बत‍इहा
एहर ह‍उवै लुग्गा ओहर ह‍उवै पूड़ी
रमायन के लग्गे हौ मड़ुआ के ढूँढ़ी
ऊ चाउर अ चिउरा किनारे के ओरी
अ नयका चपलवा अचारे के ओरी

अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इह‌इ ह‍उवै भ‍इया अमवसा क मेला॥

मचल ह‍उवै हल्ला चढ़ावा उतारा
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गुर्रा ओहर लोली-लोला
अ बिच्चे में ह‍उवै सराफत से बोला
चपायल हौ केहू, दबायल हौ केहू
अ घंटन से उप्पर टंगायल हौ केहू
केहू हक्का-बक्का केहू लाल-पीयर
केहू फनफनात ह‍उवै कीरा के नीयर
अ बप्पारे बप्पा, अ द‍इया रे द‍इया
तनी हमैं आगे बढ़ै देत्या भ‍इया
मगर केहू दर से टसकले न टसकै
टसकले न टसकै, मसकले न मसकै
छिड़ल हौ हिताई नताई क चरचा
पढ़ाई लिखाई कमाई क चरचा
दरोगा क बदली करावत हौ केहू
अ लग्गी से पानी पियावत हौ केहू

अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इह‌इ ह‍उवै भ‍इया अमवसा क मेला॥

जेहर देखा ओहरैं बढ़त ह‍उवै मेला
अ सरगे क सीढ़ी चढ़त ह‍उवै मेला
बड़ी ह‍उवै साँसत न कहले कहाला
मूड़ैमूड़ सगरों न गिनले गिनाला
एही भीड़ में संत गिरहस्त देखा
सबै अपने अपने में हौ ब्यस्त देखा
अ टाई में केहू, टोपी में केहू
अ झूँसी में केहू, अलोपी में केहू
अखाड़न क संगत अ रंगत ई देखा
बिछल हौ हजारन क पंगत ई देखा
कहीं रासलीला कहीं परबचन हौ
कहीं गोष्ठी हौ कहीं पर भजन हौ
केहू बुढ़िया माई के कोरा उठावै
अ तिरबेनी म‍इया में गोता लगावै
कलपबास में घर क चिन्ता लगल हौ
कटल धान खरिहाने व‍इसै परल हौ

अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इह‌इ ह‍उवै भ‍इया अमवसा क मेला॥

गुलब्बन क दुलहिन चलैं धीरे-धीरे
भरल नाव ज‍इसे नदी तीरे-तीरे
सजल देह हौ ज‍इसे गौने क डोली
हँसी हौ बताशा शहद ह‍उवै बोली
अ देखैलीं ठोकर बचावैलीं धक्का
मनै मन छोहारा मनै मन मुनक्का
फुटेहरा नियर मुस्किया-मुस्किया के
ऊ देखेलीं मेला सिहा के चिहा के
सबै देवी देवता मनावत चलैंलीं
अ नरियर पे नरियर चढ़ावत चलैलीं
किनारे से देखैं इशारे से बोलैं
कहीं गांठ जोड़ैं कहीं गांठ खोलैं
बड़े मन से मन्दिर में दरसन करैलीं
अ दूधे से शिवजी क अरघा भरैलीं
चढ़ावैं चढ़ावा अ गोठैं शिवाला
छुवल चाहैं पिन्डी लटक नाहीं जाला

अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इह‌इ ह‍उवै भ‍इया अमवसा क मेला॥

बहुत दिन पर चम्पा चमेली भेट‍इलीं
अ बचपन क दूनो सहेली भेंट‍इलीं
ई आपन सुनावैं ऊ आपन सुनावैं
दूनों आपन गहना गदेला गिनावैं
असों का बनवलू असों का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो न अब तक पठवलू
न ई उन्हैं रोकैं न ऊ इन्हैं टोकैं
दूनौ अपने दुलहा क तारीफ झोकैं
हमैं अपनी सासू क पुतरी तू जान्या
अ हम्मैं ससुर जी क पगरी तू जान्या
शहरियों में पक्की देहतियो में पक्की
चलत ह‍उवै टेम्पो चलत ह‍उवै चक्की
मनैमन जरै अ गड़ै लगलीं दूनों
भयल तू-तू मैं-मैं लड़ै लगली दूनों
अ साधू छोड़ावैं सिपाही छोड़ावै
अ हलुवाई ज‍इसे कराही छोड़ावैं

अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इह‌इ ह‍उवै भ‍इया अमवसा क मेला॥

कलौता क माई क झोरा हेरायल
अ बुद्धू क बड़का कटोरा हेरायल
टिकुलिया क माई टिकुलिया के जोहै
बिजुलिया क भाई बिजुलिया के जोहै
माचल ह‍उवै मेला में सगरों ढुंढाई
चमेला क बाबू चमेला का माई
गुलबिया सभत्तर निहारत चलैले
मुरहुवा मुरहुवा पुकारत चलैले
अ छोटकी बिटिउवा क मारत चलैले
बिटिउवै पर गुस्सा उतारत चलैले
गोबरधन क सरहज किनारे भेंट‍इलीं
गोबरधन के संगे प‍उँड़ के नह‍इलीं
घरे चलता पाहुन दही-गुड़ खियाइत
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइत
उहैं फेंक गठरी पर‍इलैं गोबरधन
न फिर-फिर देख‍इलैं धर‍इलैं गोबरधन

अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इह‌इ ह‍उवै भ‍इया अमवसा क मेला॥

केहू शाल सुइटर दुशाला मोलावै
केहू बस अटैची क ताला मोलावै
केहू चायदानी पियाला मोलावै
सोठ‍उरा क केहू मसाला मोलावै
नुमाइस में जातैं बदल ग‍इलीं भ‍उजी
अ भ‍इया से आगे निकल ग‍इलीं भ‍उजी
हिंडोला जब आयल मचल ग‍इलीं भ‍उजी
अ देखतै डरामा उछल ग‍इलीं भ‍उजी
अ भ‍इया बेचारू जोड़त ह‍उवैं खरचा
भुल‍इले न भूलै पकौड़ी क मरचा
बिहाने कचहरी कचहरी क चिन्ता
बहिनिया क गौना मसहरी क चिन्ता
फटल ह‍उवै कुरता फटल ह‍उवै जूता
खलित्ता में खाली केराया क बूता
तबौ पीछे-पीछे चलत जात ह‍उवन
गदेरी में सुरती मलत जात ह‍उवन

अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इह‌इ ह‍उवै भ‍इया अमवसा क मेला॥

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