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आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-115

विषय - "घर परिवार"

आयोजन अवधि- 09 मई 2020, दिन शनिवार से 10 मई 2020, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.

ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन ’घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --

तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.

अति आवश्यक सूचना :-

रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो - 09 मई 2020, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।

यदि आप किसी कारणवश अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.

महा-उत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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मंच संचालक
ई. गणेश जी बाग़ी 
(संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक)
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Replies to This Discussion

आदरणीय सत्यनारायण भाईजी

रचना को मान देने के लिए हृदय से धन्यवाद आभार।

शिक्षित हों या अशिक्षित पश्चिम की आयातित संस्कृति अंततः भारत की बेटियों के लिए दुखदाई बन जाती है।

 

बेहतरीन रचना! 

आदरणीया बबिताजी

रचना को मान देने के लिए हृदय से धन्यवाद आभार।

शिक्षित हों या अशिक्षित पश्चिम की आयातित संस्कृति अंततः भारत की बेटियों के लिए दुखदाई हो जाती है।

दरिद्र की घर परिवार व्यथा
एक गीत

22 22 22 22 // 22 22 22 22
बस हड्डी का ढांचा हूँ मैं, बासी कच्ची पक्की खा कर ।


मुझे फ़िक्र है मजदूरी की, भूक प्यास और बीमारी की।
एक सयानी बिटिया घर में, फ़िक्र हमेशा है शादी की।।
आसमान में करने को तो , मैं भी छेद बड़ा कर देता ।
तोड़ हिमालय गंगा जी का, उद्गम एक नया कर देता।।

ठेकेदारों ने समाज के ,छोड़ दिया मुझको नंगा कर।
बस हड्डी का ढांचा हूँ मैं, बासी कच्ची पक्की खा कर ।।

मेरी कलम सिकुड़ जाती है, तृषा-क्षुधा तक आते आते।
कंठ शुष्क सा हो जाता है, व्यथा जरा की गाते गाते।।
ऋतु बसंत पतझड़ हो जाती, मधुवन हो जाता है मरुथल।
पुरवाई लू सी लगती जब, टपके टूटे छप्पर से जल।

डरता गिर न पड़ें दीवारें, बच्चों के ऊपर ही आ कर।
बस हड्डी का ढांचा हूँ मैं, बासी कच्ची पक्की खा कर ।।

कौन होंसला दे अब मुझको , पत्थर मार भगा दूँ बादल
सिमटे सिकुड़े करें प्रार्थना, जल्दी से अब हो जाए कल
कौन मुझे आ कर समझाए , कैसे बच्चों को आए कल।
शीत लहर में चुन कर लाते, अर्धनग्न से थैली बोतल।।

आधे सोएं ठिठुर ठिठुर कर , आधी आधी रोटी खा कर।।
बस हड्डी का ढांचा हूँ मैं, बासी कच्ची पक्की खा कर ।।

बैठ रेशमी गद्दी पर यह, सरल बहुत व्याख्यान सुनाना
भरे पेट पर कह सकते हो, कल तुम छप्पन भोग बनाना
खाली पेट कल्पना में भी, आती है बस सूखी रोटी।
आँत मरोड़ें लेती हैं जब, क्या समझें क्या होती बोटी।

भूके पेट जुहार न की तो, पीटा मुझको भगा भगा कर।
बस हड्डी का ढांचा हूँ मैं, बासी कच्ची पक्की खा कर ।।

बिटिया हुई सयानी क्या अब , बहलाना फुसलाना करते।
जितना चाहे राशन ले जा , सेठ रोज यह वादा करते।।
हाथ पकड़ कर पास बिठाते, क्या लोगी कह हाथ फिराते
हाथ छुड़ा डरती सहमी सी , गिरती पड़ती आते आते

माँ से लिपट बताती सब कुछ, रो रो बेचारी घर आ कर।
बस हड्डी का ढांचा हूँ मैं, बासी कच्ची पक्की खा कर ।।

मैं अदना सा नौसिखिया हूँ , कितने हैं दीवान तुम्हारे।
मेरी कलम ज़बां है मेरी, मक़्तब और ऐवान तुम्हारे।।
पत्थर एक उछालूं डरता , गिर न पड़े धनिकों के सर पर ।।
हिमगिरि कैसे तोड़ सकूँगा ,भरता पेट तोड़ कर पत्थर।।

महलों वालो क्या मिलता है, मजबूरों को यूँ बहला कर।
बस हड्डी का ढांचा हूँ मैं, बासी कच्ची पक्की खा कर ।।

क़दम जयपुरी
जयपुर
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना

बहुत ही सुन्दर सृजन 

आदरणीय

आपकी स्नेहिल सराहना के लिये साभार धन्यवाद

गरीब एवं उनकी व्यथा को चित्रित करती सुंदर रचना।

आदरणीय

आपकी स्नेहिल सराहना के लिये साभार धन्यवाद

आ. ओम प्रकाश जी, सुन्दर भावप्रवण प्रस्तुति हुई है । हार्दिक बधाई ।

अति सुंदर सृजन आेमप्रकाश अग्रवाल जी।

आदरणीय ओमप्रकाश अग्रवाल जी पारिवारिक दारिद्रय की व्यथा की करुण कहानी व्यक्त करती सुंदर प्रस्तुति हार्दिक बधाई स्वीकार करें

बहुत ही मार्मिक रचना!

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