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गुनाह होना आम हो गया - डॉo विजय शंकर

वो गुनाह को पनाह देते रहे
वो पनपता रहा , वो मौज करते रहे .
गुनाह होना रोज का काम हो गया
ऐसा काम , कि बस आम हो गया ,
जब चाहे , जहां हो जाये ,
कौन जानें , कब , कहाँ हो जाये .
हालात ये हैं कि अब लोग चौंकते नहीं ,
कहीं , कुछ भी , हो जाए बोलते नहीं ,
कहीं , किसी से , कुछ पूछतें नहीं
उस तरफ , उफ्फ … देखते नहीं ,
ये हालात हैं , जो शर्मिन्दा कभी हुए नहीं ,
जब कि गुनाह खुद बेइंतहा शर्मिन्दा है ....
कि लोगो में उसके लिए कोई खौफ नहीं है
इस कदर अपनी इतनी बेइज्जती देख कर .

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on November 10, 2014 at 5:19pm

आदरणीय विजय निकोर जी रचना आपको पसंद आई , अच्छा लगा।  बधाई  के लिए बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।   

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 10, 2014 at 5:16pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी रचना की स्वीकृति  के लिए बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।   

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 10, 2014 at 5:13pm

आदरणीय खुर्शीद हैदर जी रचना को स्वीकार करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।   

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 10, 2014 at 5:09pm

आदरणीय डॉo प्राची सिंह जी विषय की संवेदनशीलता की गहराई तक जाने के लिए बहुत बहुत आभार।  आपका सुझाव भी ध्यान रखने योग्य है।मैं अवश्य ध्यान रखूंगा। आपकी बधाई एवं  शुभकामनाओं  लिए ह्रदय  धन्यवाद।  

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 10, 2014 at 4:49pm

आदरणीय राम शिरोमणि पाठक जी रचना की स्वीकृति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।  

Comment by vijay nikore on November 10, 2014 at 4:16pm

सुन्दर, यथार्थपरक, सराहनीय रचना के लिए बधाई, आ० विजय जी

Comment by khursheed khairadi on November 10, 2014 at 2:31pm

जब कि गुनाह खुद बेइंतहा शर्मिन्दा है ....
कि लोगो में उसके लिए कोई खौफ नहीं है

आदरणीय विजयशंकर जी ,सुन्दर प्रस्तुति है |सादर अभिनन्दन 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 10, 2014 at 1:55pm

आदरणीय डॉ० विजय शंकर जी 

गुनाहों के व्याप्त स्वरूप को देख समाज में आ चुकी सहज संवेदनहीन विवश मूक आरोपित स्वीकार्यता को आपने प्रस्तुत किया है... कथ्य बहुत संवेदनशील है ...इसके लिए आपको हार्दिक बधाई 

लेकिन भावों को  प्रस्तुति के लिए अभी और सुगढ़ किये जाने की आवश्यकता लगी... अभिव्यक्ति कुछ और समय की मांग करती है 

हार्दिक शुभकामनाओं सहित 

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 10, 2014 at 8:44am

आ. विजय भाई , रोज रोज़ बढते गुनाहों का दर्द आपकी कविता मे महसूस हुआ , कविता के लिये बधाई ।

Comment by ram shiromani pathak on November 9, 2014 at 2:32pm

 बहुत  ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय//हार्दिक बधाई आपको 

कृपया ध्यान दे...

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