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पिंजड़ा -- डॉo विजय शंकर

पिंजड़ा भी ,
एक अजीब बंधन है ,
दाना भी , पानी भी , बस ,
बंद पंछी उड़ नहीं सकता।
हौसलों से कहते हैं कि
क्या कुछ हो नहीं सकता ,
हो सकता है , बस पंछी ,
पिंजड़ा लेकर उड़ नहीं सकता।
कितने आज़ाद हैं हम ,
फिर भी उड़ नहीं पाते ,
मुक्त हो नहीं पाते ,
उन्मुक्त होकर जी नहीं पाते ,
बाहर से आज़ाद हैं , बस ,
कुछ पिंजड़े हैं हमारे अंदर ,
बाँधे हैं , कुछ ढीले , कुछ कस कर।
रूढ़ियाँ कब बन जाती हैं बेड़ियाँ ,
बंधे रह जाते हैं हम , पता नहीं चलता ,
एक जकड़न में , एक अकड़न में ,
कि दाना-पानी , सब है इसी में ,
बस इसी जकड़ - अकड़ से निकल लें
तो मुक्ति, वरना आज़ाद
कोई और कर नहीं सकता।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 689

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 4, 2016 at 6:04pm
आदरणीय डॉo आशुतोष मिश्रा रचना पर आगमन एवं सार्थक टिप्पणी हेतु आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 4, 2016 at 2:31pm

आदरणीय विजय सर चितन  के लिए प्रेरित करती आत्मबोध कराती इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 4, 2016 at 6:25am
आदरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी, आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 3, 2016 at 11:08pm
आभार , आदरणीय सौरभ पांडेय जी ,सादर।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 3, 2016 at 8:32pm
बहुत ही सुन्दर रचना । आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी बधाई प्रेषित है ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2016 at 7:41pm

धन्यवाद तो आदरणीय मैं भी कह रहा हूँ. 

सादर

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 3, 2016 at 6:46pm
कितने आज़ाद हैं हम ,
कुछ पिंजड़े हैं हमारे अंदर ,
बाँधे हैं , कुछ ढीले , कुछ कस कर।
रूढ़ियाँ कब बन जाती हैं बेड़ियाँ ,

जिस कर्ता या प्रथम पुरुष की तलाश है वह " हम " में है , उस " हम " में जो जकड़ा है अपनी उन रूढ़ियों में जो बेड़ियाँ बन चुकी हैं , तारीफ यह है कि उसी जकड़न में वह अकड़ भी रहा है। यह भी है कि कुछ कस कर बंधे हैं और कुछ अपेक्षाकृत कुछ ढीले। हाँ , उस कर्ता के लिए " उस " , " तुम " या " वह " का प्रयोग कर के " हम " का प्रयोग किया गया है , क्योंकि उद्देश्य उन रूढ़ियों से निकलना है न कि इसके-उसके विवाद में पड़ना है। फिर यह रचना किसी काल-खंड विशेष की भी नहीं है।
शेष रचना को समय देने और उसे पसंद करने के लिए आभार , आदरणीय सौरभ पांडेय जी , शुभ और सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 3, 2016 at 6:42pm
आदरणीय तेजवीर सिंह जी , रचना को स्वीकृति प्रदान करने के लिए आभार एवं धन्यवाद , सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2016 at 2:29pm

किस तरह की ’आज़ादी’ कोई चाहता है, जबतक यह स्पष्ट न हो तो आज़ादी उच्छृंखलता अधिक प्रतीत होती है.

दाना-पानी का मिलना, मगर उड़ने को न मिलना और तदनुरूप छटपटाहट जैसे प्रतीक इस प्रस्तुति में सन्निहित हैं, वे आधिकारिक दासता का द्योतक हैं. फिर तो ऐसा कुछ विशेष वर्ग और उसकी अवस्था की बात है. यानी, याह भाव-संप्रेषण सबके लिए नहीं है. फिर तो, जिनके लिए यह ’अपेक्षाएँ’ हैं, उनको तो इस कविता में होना था. अन्यथा ऐसे में कोई संप्रेषण अव्यावहारिक बातें करता हुआ-सा प्रतीत होता है, या, अपने मन की न ’पाने’ या ’कर पाने’ की कुण्ठा को अभिव्यक्त करता हुआ प्रतीत होता है. जबकि, इस कविता के रचनाकार आदरणीय विजय शंकर जी को जितना मैं उनकी कविताओं के माध्यम से जानता हूँ, वे ऐसे किसी भावबोध को स्वर नहीं देते.

इस हिसाब से रचना अपने कर्ता या प्रथम पुरुष के बिना खूब बोलती हुई भी स्पष्ट नहीं हो पा रही. बाकी सारा कुछ तो श्लाघनीय ही है. 

शुभेच्छाएँ. 

Comment by TEJ VEER SINGH on August 3, 2016 at 12:02pm

हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ विजय शंकर जी!बेहतरीन प्रस्तुति!मनुष्य की मजबूरियों का संकेतों से सटीक वर्णन!

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