"सच कहूं! मुझे भी पता नहीं था कि मेरी अग्नि से मिट्टी के आधुनिक चूल्हे पर चढ़ी एक साथ चार हांडियों में मनचाही चीज़ें एक साथ पकाई जा सकती हैं!"
"तो तुम्हारा मतलब हमारे मुल्क की मिट्टी में आज़ादी के चूल्हे पर लोकतंत्र के चारों स्तंभों की हांडियां एक साथ चढ़ा कर मनचाही सत्ता चलाने से है ... है न?"
"तो तुम समझ ही गये कि इस नई सदी में तुम्हारे मुल्क में मेरी ही आग कारगर है; फ़िर तुम इसे चाहे जो नाम दो : धर्मांधता, तानाशाही, सामंतवाद, भ्रष्टाचार, भय या तथाकथित हिंदुत्व लहर!"
"लेकिन याद रहे बंधुवर! जनता वो धौंकनी है, जो तुम्हारी अग्नि की ज्वाला में वृद्घि ही नहीं कर सकती, बल्कि विपरीत दिशा में अग्नि को बहका भी सकती है या फ़िर बुझा भी सकती है!"
"जनता को मत लपेटो, बुद्धिजीवी नागरिक!... हवाओं के काम हैं सब! यह काम तो बिकाऊ नेता, अभिनेता, उद्योगपति या मीडिया ही कर रहा है न! ... जनता तो वो प्रेशर कुकर है, जिसे आधुनिक चूल्हे पर हम अपनी मर्ज़ी से चढ़ाते हैं मनमानी चीज़ पकाने के लिए ... लेकिन!"
" ... लेकिन क्या?"
"लेकिन उस प्रेशर कुकर का ढक्कन खोल कर! सीटी बजने की कोई गुंजाइश ही नहीं! हा हा हा!"
यह सुनकर बुद्धिजीवी पहले तो उसके साथ हंसा; फ़िर अचानक रोने लगा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी साहब सादर अभिवादन। बढ़िया लघुकथा लिखी आपने। इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये। सादर
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