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मुहब्बत की ख़ातिर ज़िगर कीजिये ।
अभी से न यूँ चश्मे तर कीजिये ।।

गुजारा तभी है चमन में हुजूऱ ।
हर इक ज़ुल्म को अपने सर कीजिये ।।

करेगी हक़ीक़त बयां जिंदगी ।
मेरे साथ कुछ दिन सफ़र कीजिये ।।

पहुँच जाऊं मैं रूह तक आपकी ।
ज़रा थोड़ी आसां डगर कीजिये ।।

वो पढ़ते हैं जब खत के हर हर्फ़ को ।
तो मज़मून क्यूँ मुख़्तसर कीजिए ।।

लगे मुन्तज़िर गर मेरा दिल सनम ।
तो नज़रे इनायत इधर कीजिये ।।

ज़रूरत बहुत रोशनी की यहां ।
तबस्सुम से शब को सहर कीजिए ।।

है उतरा जमीं पर अगर चाँद है ।
तो रुख आज अपना उधर कीजिये ।।

मुक़द्दर में जो शख्स है ही नहीं ।
उसे याद क्यूँ रात भर कीजिये ।।

शिक़ायत खुदा से भी क्या बारहा ।
मिला जितना उसमें बसर कीजिये ।।

मैं हाज़िर हूँ मक़तल में बेख़ौफ़ आज ।
मेरे कातिलों को ख़बर कीजिये ।।


डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on April 15, 2019 at 11:15pm

जनाब डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'मुहब्बत की ख़ातिर ज़िगर कीजिये ।
अभी से न यूँ चश्मे तर कीजिये ।।'

मतले के ऊला मिसरे का शिल्प कमज़ोर है,और सानी में 'चश्म' शब्द में इज़फ़त मुनासिब नहीं,मतला यूँ कर सकते हैं:-

'महब्बत में पत्थर जिगर कीजिये

अभी से न यूँ चश्म तर कीजिये'

'वो पढ़ते हैं जब खत के हर हर्फ़ को ।'

इस मिसरे को यूँ कर लें तो गेयता बढ़ जाएगी:-

'हरिक हर्फ़ ख़त का वो पढ़ते हैं जब'

'है उतरा जमीं पर अगर चाँद है

 तो रुख आज अपना उधर कीजिये'

इस शैर के ऊला में दो बार 'है' शब्द खटक रहा है,और सानी में 'आज'शब्द भर्ती का है,शैर यूँ कर सकते हैं:-

'ज़मीं पर अगर चाँद उतरा मियाँ

तो रुख़ आप अपना उधर कीजिये' 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on April 13, 2019 at 10:08pm

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी सादर नमस्कार , शानदार ग़ज़ल हुई है, बहुत बहुत बधाई आपको - बसंत 

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