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जागो उठो हे लाल तुम (मधुमालती छंद)

(14 मात्राओं का सम मात्रिक छंद, सात सात मात्राओं पर यति, चरणान्त में रगण अर्थात गुरु लघु गुरु)

जागो उठो, हे लाल तुम, बनके सदा, विकराल तुम ।
जो सोच लो, उसको करो, होगे सफल, धीरज धरो।।

भारत तुम्हें, प्यारा लगे, जाँ से अधिक, न्यारा लगे।
मन में रखो, बस हर्ष को, निज देश के, उत्कर्ष को।।

इस देश के, तुम वीर हो, पथ पे डटो, तुम धीर हो।
चिन्ता न हो, निज प्राण का, हर कर्म हो, कल्याण का।।

हो सिंह के, शावक तुम्हीं, भय हो तुम्हें, किंचित नहीं।
इस बात को, तुम जान लो, होगा वही, जो ठान लो।।

रण में तुझे, जो मार दे, या फन उठा, फुफकार दे।
ऐसा यहाँ, जग में कहीं, है अब तलक, जन्मा नहीं।।

जय हिंद का, उदघोष हो, रण मध्य में, जब रोष हो।
मिल के करो, तब गर्जना, जड़ शून्य हो, अरि चेतना।।

इस देश का, कुछ कर्ज है, उसको निभा, जो फर्ज है।
पहले नहीं, तू वार कर, पर हो अगर, संहार कर।।

कोई अगर, हो भूल भी, या हो कहीं, गर शूल भी।
उसका करो, तुम सामना, भय से नहीं, तुम काँपना।।

पर्वत नदी, तूफान हो, या शत्रु कुछ, बलवान हो।
तुम मौत बन, टूटो वहीं, ना जा सके, अरिदल कहीं।।

गूँजे गगन, आलाप से, कापें धरा, पद चाप से ।
जब चल पड़ो, ललकार के, जय हिंद को, जयकार के।।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by नाथ सोनांचली on January 18, 2019 at 4:46pm

आद0 महेश्वरी कनेरी जी सादर अभिवादन। रचना पर आपकी उपस्थिति और सुंदर उत्साह बढ़ती प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ,, आभार आपका

Comment by Maheshwari Kaneri on January 18, 2019 at 4:41pm

भाई सुरेन्द्र नाथ जी आहूत सुन्दर रचना हुई है बशाई और शुभकामना 

Comment by नाथ सोनांचली on January 18, 2019 at 5:03am

आद0 महेंद्र जी सादर अभिवादन। प्रतिक्रिया से नवाजने के लिए आभारी हूँ।

Comment by Mahendra Kumar on January 17, 2019 at 8:46pm

बहुत ख़ूब रचना हुई है आदरणीय सुरेन्द्र जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by नाथ सोनांचली on January 16, 2019 at 8:37pm

आद0 तेजवीर सिंह जी सादर अभिवादन। रचना अच्छी लगी तो लिखना सार्थक हुआ। हृदय तल से आभार आपका 

Comment by नाथ सोनांचली on January 16, 2019 at 8:35pm
आद0 समर कबीर साहब सादर प्रणाम। रचना पर आपकी प्रतिक्रिया की मुझे इसीलिए प्रतीक्षा रहती है क्योकि आप बेहद बारीकी से नीर क्षीर विभेद कर हमें रचना में आवश्यक संसोधन को बताते हैं। आभार आपका। सादर
Comment by TEJ VEER SINGH on January 16, 2019 at 5:47pm

हार्दिक बधाई आदरणीय  सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी।बेहतरीन रचना।

रण में तुझे, जो मार दे, या फन उठा, फुफकार दे।
ऐसा यहाँ, जग में कहीं, है अब तलक, जन्मा नहीं।।

Comment by Samar kabeer on January 16, 2019 at 5:46pm

जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आदाब,मधुमालती छन्द में अच्छी रचना हुई है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

"चिन्ता न हो, निज प्राण का"

इस पंक्ति में 'चिन्ता' शब्द स्त्रीलिंग है,देखिये ।

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