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1222,1222, 1222, 1222

चलो ये बोझ भी दिलपर उठाकर देख लेते हैं
किसीको हम ज़रा दिलमें बसाकर देख लेते हैं

जियेगें किस तरह तन्हाँ यहाँ साथी अगर छूटा
यहाँ जो बेवजह रूठा मनाकर देख लेते हैं .....

कहाँतक हार है अपनी ज़रा इसका पता करलें
यहाँ भी ईक नयी बाज़ी लगाकर देख लेते है....

कहो कैसे यक़ीं तुमको दिलायें आशनाई का.
लगेहैं जख्म जो दिल पर दिखाकर देख लेते हैं

जमींपर जो नहीं मिलते वो मिलते आसमानों पर
चलो अपनी' भी हस्ती हम मिटाकर देख लेते हैं !!

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on August 6, 2018 at 11:57pm

आदरणीय किशोर कांत जी,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें । दूसरे आैर तीसरे शेर में यहाँ लफ्ज स्पषट हो जाए तो शेर आेर सुंदर हो जाएगा । सादर

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on August 6, 2018 at 10:10pm

जनाब किशोर साहिब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद क़ुबुलफरमाएं l मुहतरम समर साहिब के मशवरे पर ग़ौर कीजियेगा I सही शब्द तन्हा है तनहां नहीं , देखिएगा 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 6, 2018 at 7:33pm

आ. भाई किशोर जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on August 5, 2018 at 2:31pm

जनाब किशोर कांत जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

पहले भी आपसे निवेदन किया था कि टाइप करते समय शब्दों के बीच स्पेस दिया करें,रचना का मज़ा बिगड़ता है ।

'यहाँ भी ईक नयी बाज़ी लगाकर देख लेते हैं'

इस मिसरे में 'ईक' को "इक" कर लें ।

'चलो अपनी' भी हस्ती हम मिटाकर देख लेते हैं'

इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है, अगर मिसरा यूँ कर लें तो ये ऐब निकल जायेगा:-

'चलो अपनी भी हम हस्ती मिटाकर देख लेते हैं'

Comment by Mohammed Arif on August 5, 2018 at 9:39am

आदरणीय किशोरकांत जी आदाब,

                     लाजवाब ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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