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ग़ज़ल -- ये क्या हो गया है भले आदमी को // दिनेश कुमार

122----122----122----122
.
जो आँखों से दिखती नहीं है सभी को
मैं क्यों ढूँढ़ता हूँ उसी रौशनी को
.
जो समझे मेरे दिल की सब अन-कही को
मैं क्या नाम दूँ ऐसे इक अजनबी को
.
सुधारेगा कौन आपके बिन मुझे अब
मुझे डाँटने का था हक़ आप ही को
.
भले रोज़मर्रा में हों मुश्किलें ख़ूब
बहुत प्यार करता हूँ मैं ज़िंदगी को
.
कसौटी पे परखे जो किरदार अपना
भला इतनी फ़ुर्सत कहाँ है किसी को
.
तुम्हें नूरे-जाँ भी दिखेगा इसी में
कभी ग़ौर से देखना तीरगी को
.
सराबों में कब तक भटकता रहेगा
तू दे अब तवज्जोह भी ख़ुद-आगही को
.
'दिनेश' अपने बारे में ही सोचता है
ये क्या हो गया है भले आदमी को
.
मौलिक व अप्रकाशित

Views: 789

Comment

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Comment by Ravi Shukla on May 7, 2018 at 6:09pm

आदरणीय दिनेश जी बड़ी अच्छी ग़ज़ल आपने कही रवानी भी खूब है इस पर हुई चर्चा से कई बातें सीखने को मिली सीधी जुबान के शेर पर आपने अच्छी कोशिश की है उस पर आए सुझावों से रवानी और भी ज्यादा बढ़ गई है दिली मुबारकबाद कुबूल कीजिए

Comment by नाथ सोनांचली on May 7, 2018 at 5:39pm

आद0 दिनेश जी सादर नमन। बढिया ग़ज़ल कही आपने। आद0 समर साहब के इस्लाह से और निखर गयी ग़ज़ल। बहुत बहुत बधाई आपको।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 6, 2018 at 5:42pm

आ. भाई दिनेश जी अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई ।

Comment by Harash Mahajan on May 6, 2018 at 9:49am

वाह आदरणीय दिनेश जी सच में आपके अहसास आ०समर जी औऱआ० नीलेश जी की इस्लाह के बाद कितने मुखर होकर

उभरे हैं । बहुत खूब ग़ज़ल हुई है ।

'बता नाम क्या दूँ मैं उस अजनबी को' ..कितना मर्म है इसमें ।

बधाई ।

सादर ।

Comment by दिनेश कुमार on May 6, 2018 at 5:44am

अब comments post हो रहे हैं, अजीब है। ☺

Comment by दिनेश कुमार on May 6, 2018 at 5:43am

तहे दिल से आभार आ. श्याम नारायण जी। इनायत

Comment by दिनेश कुमार on May 6, 2018 at 5:41am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय निलेश सर जी। हौसला अफ़ज़ाई बहुत काम आती है।

आपके कहे अनुसार हर अनकही कर लिया है। शुक्रिया सर। 

Comment by दिनेश कुमार on May 6, 2018 at 5:39am

Comment by Samar kabeer on May 5, 2018 at 9:27pm

जनाब दिनेश जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

कुछ सुझाव हैं,अगर पसन्द-ए- ख़ातिर हों ।

मतले का ऊला मिसरा यूँ करें :-

'जो आँखों से दिखती नहीं है किसी को'

दूसरे शैर के ऊला के लिए निलेश जी का सुझाव बहतर है, सानी यूँ करें :-

'बता नाम क्या दूँ मैं उस अजनबी को'

तीसरे शैर का ऊला यूँ करें :-

'सुधारेगा अब कौन मुझको बताओ'

4थे शैर के ऊला में 'ख़ूब' की जगह "पर" कर लें ।

सातवें शैर का सानी यूँ करें :-

'ज़रा देख आवाज़ देकर ख़ुदी को'

Comment by Shyam Narain Verma on May 5, 2018 at 11:36am
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!

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