बह्र:- 2122-2122-2122-212
होश खोकर मैं न पल्लू में सिमट जाऊं कहीं।।
'इस तरह बहकूँ न होटों से लिपट जाऊँ कहीं'।।
'डरते डरते आज अपनी उम्र के इस खेल में ।
इश्क़ के दो बोल सुनकर ही न पट जाऊँ कहीं'।।
'ये फ़ज़ाएँ शौख़ कमसिन छेड़ती हैं जिस्म को।
कांपते हैं ये क़दम मैं न रपट जाऊँ कहीं'।।
एक जर्रा चाहता हूँ प्यास से झुलसा हुआ।
कि समंदर बावला ले कर उलट जाऊं कहीं।।
जिंदगी के पथ में मेरा एक ही आमोद है।
मैं सृजन करते हुये ही बस निपट जाऊं कहीं।।
आमोद बिंदौरी /मौलिक अप्रकाशित
Comment
सुंदर प्रयास..
इस ख़ामी को दूर करने के लिए आपको बहुत अध्यन करना होगा,ओबीओ पर इसकी सुविधा मौजूद है ।
आ समर दादा नमन
दादा अभी 2 साल हुए इस ग़ज़ल लिखने में और मुझे येभी खबर नही पड़ती की शेर हुआ या नहीं , बस जो जैसा लिख पाता हूँ आप के सामने है । मुझे आप से ही ये बात साफ़ पता लगती है कि मेरी ख़ामी क्या है।
अपनी अगली रचना में इन खामियों को दूर करने की कोशिस करूँगा ।
सादर नमन दादा
जनाब आमोद बिंदौरी साहिब आदाब,ग़ज़ल शिल्प के लिहाज़ से बहुत कमज़ोर है, बहरहाल बधाई स्वीकार करें :-
मतले का सानी मिसरा यूँ कर लें :-
'इस तरह बहकूँ न होटों से लिपट जाऊँ कहीं'
दूसरा शैर यूँ कर लें :-
'डरते डरते आज अपनी उम्र के इस खेल में
इश्क़ के दो बोल सुनकर ही न पट जाऊँ कहीं'
तीसरे शैर में 'वादियाँ' किसी को कैसे छेड़ सकती हैं,इस शैर को यूँ कर लें :-
'ये फ़ज़ाएँ शौख़ कमसिन छेड़ती हैं जिस्म को
कांपते हैं ये क़दम मैं न रपट जाऊँ कहीं'
4थे शैर का मफ़हूम स्पष्ट नहीं है ।
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