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अब समझ में नहीं आरही बेरुख़ी..

बह्र -212-212-212-212

मैने कह तो दिया जिंदगी आपकी।।

अब समझ में नहीं आ रही बेरुख़ी ।।

धड़कनें दिल की अपनी जवां गिन कहो।

क्या  बदलती न  मेरे लिए आज भी।।

आप समझें मुझे गर खिलौना न गम।

मुझको स्वीकार है ना समझ आशिक़ी।।

प्यार अहसास जुल्मों सितम रख लिए।

आगे चलकर मिले न मिले यह सभी।।

जिसकी रग में मुहब्बत की स्याही बहे।

वो कलम क्या बगावत लिखेगी कभी।।

कितना छांटो या काटो या मोड़ो इसे।

असलियत है न ये रंग बदलती कभी।।

हाल अब प्यार का आप मत पूछिए।

ये भी वैसा ही है जैसा की आदमी।।

बाप कहता मेरी सब ये औलाद हैं।

खींच दीवार  बेटे रहे मजहबी।।

आमोद बिंदौरी/ मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by amod shrivastav (bindouri) on February 25, 2018 at 3:41pm

आ समर दादा आभार 

जी दादा मैं ठीक कर लेता हूँ । ...नमन

Comment by Samar kabeer on February 25, 2018 at 3:27pm

जनाब अमोद बिंदौरी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

कई अशआर में शिल्प दोष है,इसकी तरफ़ ध्यान देना आवश्यक है ।

दूसरे शैर में मफ़हूम साफ़ नहीं है,क्या कहना चाहते हैं?

'आप समझें मुझे गर खिलौना न ग़म'

इस मिसरे में शिल्प कमज़ोर है, इसे यूँ कर सकते हैं :-

"आप समझें खिलौना मुझे ग़म नहीं'

"आगे चलकर मिले न मिले यह सभी'

ऊला मिसरे में चूँकि बहुवचन है, इसलिये इस मिसरे को यूँ कर लीजिये:-

'आगे चलकर मिलें न मिलें यह सभी'

'जिसकी रग में मुहब्बत की स्याही बहे'

इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा :-

'जिसकी रग रग में चाहत की स्याही बहे'

'असलियत है न ये रंग बदलती कभी'

इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा :-

'असलियत है बदलती नहीं ये कभी'

Comment by Shyam Narain Verma on February 23, 2018 at 4:01pm
बहूत खूब, हार्दिक शुभकामनाएं l सादर

कृपया ध्यान दे...

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