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तरही ग़ज़ल (पहले ये बतला दो उसने छुप कर तीर चलाए तो)- गुरप्रीत सिंह

लाख करे कोशिश सोने की फ़िर भी नींद न आए तो।
एक अधूरा ख़्वाब किसी को सारी रात जगाए तो ।

तुम तो हौले से 'ना' कह के अपने रस्ते चल दोगे,
लेकिन किसी का अम्बर टूटे और धरती फट जाए तो ।

हाँ मैं तेरे ज़ुल्म के बारे में न ज़ुबाँ से बोलूँगा,
पर क्या होगा गर महफ़िल में आँख मेरी भर आए तो ।

फ़िर बतलाना सीने ऊपर वार बचाना है कैसे,
पहले ये बतला दो उसने छुप कर तीर चलाए तो ।

वो गर नज़रों से ही छू ले तो दिल धक धक करने लगे,
जाने क्या हो गर वो सचमुच आकर हाथ लगाए तो ।

वो अँगड़ाई ले के उठे तो कुदरत जागे सुब्ह चले,
पंछी लौट घरों को आएं वो ज़ुल्फ़ें बिखराए तो ।

रूह की प्यास बुझा लेंगे, सुन लेंगे तेरी ग़ज़लें भी,
पहले कोई आए पापी पेट की आग बुझाए तो ।

जनता भी हनुमान जी जैसे अपनी ताकत भूल चुकी,
फ़िर से ख़ुद को पहचानेगी कोई स्मर्ण कराए तो ।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Ajay Tiwari on November 6, 2017 at 11:09am

आदरणीय गुरप्रीत जी,

अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.

आर्कन के एक ही होने से बहर के बारे में भ्रान्ति होना स्वाभाविक है. मैंने एक आलेख में तरही की बहर और बहरे-मीर का अंतर स्पष्ट करने की कोशिश की है. आप 'ग़ज़ल कि बातें' में देख सकते हैं :

http://www.openbooksonline.com/group/gazal_ki_bateyn/forum/topics/5...

सादर 

Comment by Samar kabeer on November 5, 2017 at 8:39pm
जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकारकरें ।
कुछ अशआर में शिल्प की कमज़ोरी साफ़ नज़र आ रही है,उस पर क़ाबू पाने की ज़रूरत है,मसलन दूसरे शैर का सानी मिसरा, तीसरे शैर का ऊला मिसरा, गिरह का मिसरा, आख़री शैर का ऊला मिसरा ।
Comment by Afroz 'sahr' on November 3, 2017 at 11:45am
आदरणीय गुर प्रीत जी मेंरे कहे को मान देने के लिए आपका मश्कूर हूँ। पाँचवे शेर का ऊला मिसरा बह्र में है । इस ग़लत फ़हमी के लिए मआज़रत का तालिब,सादर
Comment by Gurpreet Singh jammu on November 3, 2017 at 9:22am
आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी ..ग़ज़ल की सराहना के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका ... दरअसल डेंगू बुखार ने कई दिन तंग करके रखा, इसलिए मंच पर उपस्थित नहीं हो सका .
Comment by Gurpreet Singh jammu on November 3, 2017 at 9:19am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय बृजेश जी
Comment by Gurpreet Singh jammu on November 3, 2017 at 9:18am
शुक्रिया आदरणीय अफ़रोज़ जी ....तरही मुशायरे की टिप्पणियाँ पढीं तो पता चला कि ये बहरे-मीर नहीं है। अब दूसरे शेर का सानी दुरुस्त करने की कोशिश करता हूँ. पाँचवें शेर का ऊला मिसरा क्यों बह्र में नहीं है, ये समझ नहीं पाया. क्रुप्या इस के बारे में थोड़ा समझाएं ... धन्यवाद
Comment by Mohammed Arif on November 3, 2017 at 8:08am
रूह की प्यास बुझा लेंगे, सुन लेंगे तेरी ग़ज़लें भी,
पहले कोई आए पापी पेट की आग बुझाए तो । वाह! वाह!! बहुत ख़ूब !
शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरणीय गुरप्रीत जी । बहुत दिनों के बाद हुज़ूर का आना हुआ ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 2, 2017 at 9:43pm
बहुत बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय..सादर
Comment by Afroz 'sahr' on November 2, 2017 at 8:01pm
आडदरणीय गुरप्रीत जीइस रचना पर बधाई आपको।
दूसरे शेर का सानी मिसरा ,पाँचवे शेर का ऊला मिसरा बह्र में नहीं है देखिएगा,,,,

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