२२ २२ २२ २
खुद ही काटे अपने पर
क्या धरती अब क्या अम्बर
कोई खिड़की न कोई दर
कितना उम्दा अपना घर
दुनिया तेरी धरती पर
अपनी हद बस ये गज भर
बंद कफ़स हो चाहे खुला
तुझको अब कैसा है डर
सारा आलम रख ले तू
मेरी अब परवाह न कर
मेरी अपनी मंजिल है
तेरी अपनी राह गुज़र
बेजा अब हैं तीर तेरे
तन पत्थर है मन पत्थर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० कालीपद प्रसाद जी ,आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया
आद० मोहम्मद आरिफ जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया .
आदरणीया राजेश कुमारी जी,
उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.
क्या धरती अब क्या अम्बर > अब क्या धरती, क्या अम्बर
कोई खिड़की न कोई दर > न कोई खिड़की, न कोई दर
शायद ये सूरतें बेहतर हों. यह एक ख्याल है कोई इस्लाह नहीं. मैं गलत भी हो सकता हूँ.
सादर
आदरणीया राजेश कुमारी जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है \ मुबारकबाद स्वीकार करें | नमन
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