२१२२ १२१२ २२
खामशी की जबान समझो ना
अनकही दास्तान समझो ना
सामने हैं मेरी खुली बाहें
तुम इन्हें आस्तान समझो ना
ये गुजारिश सही मुहब्बत की
तुम खुदा की कमान समझो ना
स्याह काजल बहा जो आँखों से
हैं वफ़ा के निशान समझो ना
बस गए हो मेरी इन आँखों में
इनमें अपना जहान समझो ना
झुक गया है तुम्हारे कदमों में
ये मेरा आसमान समझो ना
खींच लाती कोई कशिश हमको
रब्त है दरमियान समझो ना
आस्तान =भगवान् की मूरती तक पंहुचने का द्वार
कमान=हुक्म /आदेश
---मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब समर कबीर साहब, आदाब,
आपने टिप्पणी की और उस पर मैंने अपनी प्रतिक्रिया दी. इसमें जिद या तूल देने जैसी कोई बात नहीं है. ग़ज़लकार अगर आज़ाद होता है तो पाठक भी अपनी राय रखने के लिए आज़ाद होता है. मैंने अपनी राय सामने रख दी है और बाकी लोग भी उस पर अपनी राय रखने के लिए आज़ाद है. मेरी राय अगर आपको वक़्त बर्बाद करना लगती है तो आप ये राय रखने के लिए आज़ाद हैं.
सादर
आदरणीया दीदी दूसरे रुक्न में मेरी इन मे अलिफ वस्ल कहाँ है वो तो इन आंखों मे अलिफ वस्ल है / मिरी इनाँ / खों मे शायद हम सही समझे है । सादर
मोहतरम समर भाई जी ,बात स्पष्ट करने का शुक्रिया |
आद० राज़ जी आपको ग़ज़ल पसंद आई इसका तहे दिल से शुक्रिया .आप को दो जगह संशय है उसका निवारण करने की कोशिश करती हुई .मेरी इन आँखों में मेरी +इन में अलिफ़-ए-वस्ल का प्रयोग किया है |
दूसरा संशय -तुम्हारे -१२२ होता है यहाँ रे की मात्रा गिराई गई है --इस लिए तुम्हारे कदमों में --१२१२ २२ हुआ
आद० समर भाई जी से भी गुजारिश है इसकी पुष्टि करने के लिए .सादर
आदरणीया राजेश जी, सुन्दर ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद देता हूँ, मतला
खामशी की जबान समझो ना
अनकही दास्तान समझो ना
बहुत ख़ूबसूरत बना है. इस्लाह के लिए जनाब समर कबीर साहेब से जानना चाहूँगा:
१. 'बस गए हो/ मेरी इन आँ/खों में' मिसरे में क्या 'इन' को १ के वज़न में लिया जा सकता है? अन्यथा वज़न १२१२ की जगह १२२१ लग रहा है.
२. 'झुक गया है/ तुम्हारे कद/मों में के रुक्न 'तुम्हारे कद' को क्या १२१२ वज़न में लिया जाएगा या २२१२ में? सादर
आद० गिरिराज जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ आपका तहे दिल से शुक्रिया | सार्थक चर्चा से ज्ञान वर्धन तो होता आदरणीय .किन्तु यदि चर्चा में जिद झलकने लगे तो वो बेमानी भी लगने लगती है |
आदरनीया राजेश जी , खूबसूरत गज़ल और ग़ज़ल के माध्यम से ज्ञान वर्धक चर्चा दोनो के लिये आपको बधाई एवँ शुक्रिया । आ. समर भाई जी का भी हार्दिक आभार ।
जनाब समर कबीर साहब, आदाब,
'रोजे का दरवाजा' का अर्थ स्पष्ट करने के लिए धन्यवाद.
\\‘शब्दकोष में एक शब्द के कई अर्थ दिये होते हैं,तो उसका कारण यही होता है कि हम जब ग़ज़ल या किसी और विधा का सृजन करें तो उसके हिसाब से अर्थ ले लें’\\
लेकिन यह चुनाव मनमाना नहीं होता. लुगत शायरी के लिए बहुत दूर तक साथ नहीं देती. लुगत में शब्दों के मूल अर्थ के साथ जितने मिलते जुलते अर्थ है इकठ्ठा कर दिया गया होता है. यह शब्द के गौण अर्थ (secondary meaning) होते है. वो शब्द भी जो एक दूसरे के पर्यायवाची होते है बिलकुल सामान अर्थ नहीं रखते. एक रचनाकार को पर्यायों में से भी सही शब्द का चुनाव करना होता है.
ग़ालिब अपने शब्द-चयन में बहुत सतर्क थे उन्हें पता था की अस्तान (चौखट) दरवाजे का ही निचला हिस्सा जरूर होता है दरवाजा नहीं. वर्ना इन दोनों का प्रयोग एक साथ नहीं करते. और उन्हें सज़ा और अकूबत के अर्थ का फर्क भी मौलवी फिरोजुद्दीन(फिरोजुल लुगात के कोशकार) से ज्यादा बेहतर पता था .दुःख और दंड को एक दूसरे का अर्थ कैसे बताया जा सकता है मेरी समझ से बहार है.
मजार, दरगाह, खानकाह के अर्थ में आस्तान का प्रयोग एक लाक्षणिक प्रयोग है. जब हम ‘आस्तान – ए – हज़रत निजामुद्दीन’ कहते है तो इसका मूल शाब्दिक अर्थ ‘हज़रत निजामुद्दीन की चौखट’ ही होता है लाक्षणिक रूप से इसका अर्थ ‘हज़रत निजामुद्दीन की दरगाह ‘ लिया जाता है . दरवाज़े से यहाँ कोई लेना देना नहीं है.
जिस शेर की हम चर्चा कर रहे है उसमे दरवाजे के भौतिक रूप की बाहों से तुलना है . यहाँ किसी लाक्षणिक दरवाजे का जिक्र नहीं है. इस अर्थ में आस्तान शब्द का प्रयोग निश्चित ही गलत है. क्योकि आस्तान भौतिक दरवाजा तो हो ही नहीं सकता भौतिक रूप से वह चौखट ही होता है. यह जमीन से जुड़ा दरवाजे का निचला हिस्सा होता है जिसकी खुली बाहों से कोई समानता नहीं है.
\\‘बहना के शेर में आस्तां से कोई रिश्ता क़ाइम नहीं किया गया है,बल्कि बांहों को आस्तां के दरवाज़े से तशबीह दी गयी है जो सौ फीसदी सही है ।‘\\
‘आस्तां के दरवाज़े’ एक निरर्थक प्रयोग है. क्योकि आस्तान को ‘आस्तां का दरवाज़ा’ कहना निरर्थक होगा.
बिना किसी रिश्ते कोई तशबीह मुमकिन नहीं हो सकती. तशबीह के लिए कोई न कोई समानता दो चीजों के बीच अनिवार्य है.
आदरणीया राजेश कुमारी जी के शेर यह समानता आकार की है. आकार एक भौतिक गुण (physical property) है. और भौतिक आस्तान(चौखट) की समानता बाँहों से नहीं है. जाहिर सी बात है जो तशबीह दी गयी है वो सौ फीसदी गलत है.
उर्दू के उस्ताद शायरों को आस्तान और बाहों में कोई समानता का रिश्ता नज़र नहीं आया था इसीलिए उन्होंने कभी इसका तशबीह के तौर पर भी इस्तेमाल नहीं किया.
सादर
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