२१२२/११२२/२२ (११२)
रोज़ जो मुझ को नया चाहती है
ज़िन्दगी मुझ से तू क्या चाहती है?
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मौत की शक्ल पहन कर शायद
ज़िन्दगी बदली क़बा चाहती है.
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मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है.
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इक सितमगर जो मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.
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“नूर’ बुझ जाये चिराग़ों की तरह
क्या ही नादान हवा चाहती है.
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निलेश"नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. डॉ. आशुतोष जी
आदरणीय नूर जी आपकी इस ग़ज़ल के माध्यम से विद्वतजनो की प्रतिक्रियाओं से तमाम जानकारी मिली .
मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है इस शेर के लिए बिशेष रूप से बधाई सादर
जी आ. तस्दीक़ साहब... मैं ग़लत समझ बैठा
सादर
शुक्रिया आ. रवि जी ,
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इक मेहरबाँ बुज़ुर्ग ने ये मशवरा दिया
दुख का कोई इलाज नहीं जा शराब पी
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अहमद फ़राज़
आदरणीय नीलेश जी अच्छी ग़ज़ल के लिये दिली मुबारक बाद पेश है
मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है. ये शेर बहुत पंसद आया बधाई
हमने भी एक शेर में मश्वरा देना का इस्तेमाल किया था तो एक इस्लाह मिली और कहा कि मश्वार आपस मे किया जाता है दिया नहीं जाता । इस मंच पर विद्वतजन की टिप्पणी क्या आती है । ये प्रतीक्षा है । सादर
शुक्रिया आ. तस्दीक़ साहब ....खल्क पहुँचू तो वहाँ की बात करूँ.... अभी दुनिया में हूँ तो यहाँ कि नुमाइन्दगी करना बेहतर होगा ...
...
5 वें शेर के सानी मिसरा अपने आप में पूरा है .... क्लासिकल शाइरी पढेंगे तो ऐसा ही लिखा पायेंगे ...
यह ही में वो तंज़ कहाँ जो क्या ही में है ..
सादर
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