१२१२/ ११२२/ १२१२/ २२
अँधेरों!! “नूर” ने जुगनू अभी उछाला है,
ज़रा सी देर में सूरज निकलने वाला है.
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बिदा करेंगे तो हम ज़ार ज़ार रोयेंगे,
तुम्हारे दर्द को अपना बना के पाला है.
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नज़र भी हाय उन्हीं से लड़ी है महफ़िल में,
कि जिन के नाम का मेरे लबों पे ताला है.
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शजर घनेरे हैं तख़लीक़ में मुसव्विर की
सफ़र की धूप ने उस पर असर ये डाला है.
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निकल के कूचा-ए-जनां से आबरू न गयी,
लुटे हैं सुन के हमें दिल से भी निकाला है.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. बृजेश जी
शुक्रिया आ. तस्दीक़ अहमद साहब
शुक्रिया आ. राम अवध जी
शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब
शुक्रिया आ. गिरिराज जी
आद्ररनीय नीलेश भाई , खूबसूरत गज़ल के हार्दिक बधाइयाँ ।
दूसरे शेर का जवाब नहीं ... खूब साही बधाइयाँ ।
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