हाजिरी वो ज्यों लगाने आ गए
याद उनको फिर बहाने आ गए
मुट्ठियों में वो नमक रखते तो क्या
जख्म हमको भी छुपाने आ गए
चल पड़े थे हम कलम को तोड़कर
लफ्ज़ हमको खुद बुलाने आ गए
जेब मेरी हो गई भारी जरा
दोस्त मेरे आजमाने आ गए
रोज लिखना शायरी उनपर नई
याद हमको वो फ़साने आ गए
शमअ इक है लाख परवाने यहाँ
इश्क में खुद जाँ लुटाने आ गए
झील में अश्जार के धुलते बदन
कुछ परिंदे भी नहाने आ गए
देख कर आकाश पर कौस-ए-क़ज़ह
लोग आँखों से चुराने आ गए
आशनाई उनकी आँखों से कमाल
अश्क मेरे झिलमिलाने आ गए
हाथों पैरों में हिना गीली मगर
बज़्म की रौनक बढाने आ गए
------मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
वाह वाह .. आ दीदी... बहुत खूब
आद० अनुराग वशिष्ट जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका बहुत- बहुत शुक्रिया |
आद० समर भाई जी आपने मेरा सब संशय दूर कर दिया मतला अब बेहतर हो गया इसे संशोधित कर लूँगी
आपने पुनः इस ग़ज़ल को वक़्त दिया जिसके लिए बेहद शुक्रगुजार हूँ भाई जी ये स्नेह यूं ही बनाए रखियेगा |
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