चाँद बोला चाँदनी, चौथा पहर होने को है.
चल समेटें बिस्तरे वक्ते सहर होने को है.
चल यहाँ से दूर चलते हैं सनम माहे-जबीं.
इस जमीं पर अब न अपना तो गुजर होने को है.
है रिजर्वेशन अजल, हर सम्त जिसकी चाह है.
ऐसा लगता है कि किस्सा मुख़्तसर होने को है.
गर सियासत ने न समझा दर्द जनता का तो फिर.
हाथ में हर एक के तेगो-तबर होने को है.
जो निहायत ही मलाहत से फ़साहत जानता.
ना सराहत की उसे कोई कसर होने को है.
है शिकायत , कीजिये लेकिन हिदायत है सुनो.
जो कबाहत की किसी ने तो खतर होने को है.
पाके नेमत जो निज़ामत की सख़ावत छोड़ दे.
वो मलामत ओ बगावत की नजर होने को है.
शान 'हिन्दुस्तान' की कोई मिटा सकता नहीं.
सरफ़रोशों की न जब कोई कसर होने को है.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , आपका हार्दिक धन्यवाद...आपके सुझाव पर भविष्य में पूरा अमल होगा..
भाई बृजेश कुमार जी ब्रज साहब , आपका हार्दिक आभार...
आदरणीय गंगा धर भाई , बहुत खूब सूरत ग़ज़ल कही है , दिल से बधाइयाँ प्रेसित कर रहा हूँ स्वीकार कीजिये । कुछ अप्रचलित ऊर्दू के शब्द हों तो अर्थ दे दिया कीजिये .. पाठकों की सहूलियत के लिये ।
आदरणीय शिज्जु जी प्रणाम ! उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद....ग़ज़ल ओ.बी.ओ. मंच पर प्रथमतः प्रकाशित है.....हाँ! है अवश्य ही मुशायरे वाली ही .....
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