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चाँद बोला चाँदनी, चौथा पहर होने को है.

चाँद बोला चाँदनी, चौथा पहर होने को है.

चल समेटें बिस्तरे वक्ते सहर होने को है.

चल यहाँ से दूर चलते हैं सनम माहे-जबीं.

इस जमीं पर अब न अपना तो गुजर होने को है.

है रिजर्वेशन अजल, हर सम्त जिसकी चाह है.

ऐसा लगता है कि किस्सा मुख़्तसर होने को है.

गर सियासत ने न समझा दर्द जनता का तो फिर.

हाथ में हर एक के तेगो-तबर होने को है.

जो निहायत ही मलाहत से फ़साहत जानता.

ना सराहत की उसे कोई कसर होने को है.

है शिकायत , कीजिये लेकिन हिदायत है सुनो.

जो कबाहत की किसी ने तो खतर होने को है.

पाके नेमत जो निज़ामत की सख़ावत छोड़ दे.

वो मलामत ओ बगावत की नजर होने को है.

शान 'हिन्दुस्तान' की कोई मिटा सकता नहीं.

सरफ़रोशों की न जब कोई कसर होने को है.

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on February 3, 2017 at 12:33pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , आपका हार्दिक धन्यवाद...आपके सुझाव पर भविष्य में पूरा अमल होगा..

Comment by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on February 3, 2017 at 12:27pm

भाई बृजेश कुमार जी ब्रज साहब , आपका हार्दिक आभार...


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 3, 2017 at 10:09am

आदरणीय गंगा धर भाई , बहुत खूब सूरत ग़ज़ल कही है  , दिल से बधाइयाँ प्रेसित कर रहा हूँ स्वीकार कीजिये । कुछ अप्रचलित ऊर्दू  के शब्द हों  तो अर्थ दे दिया कीजिये ..  पाठकों की सहूलियत के लिये ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 1, 2017 at 9:20pm
बेहद शानदार ग़ज़ल हुई आदरणीय...
Comment by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on February 1, 2017 at 12:18am

आदरणीय शिज्जु जी प्रणाम ! उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद....ग़ज़ल ओ.बी.ओ. मंच पर प्रथमतः प्रकाशित है.....हाँ! है अवश्य ही मुशायरे वाली ही .....


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Comment by शिज्जु "शकूर" on January 31, 2017 at 9:08pm
आ. गंगाधर जी अच्छी रचना हुई है। मुआफ़ी चाहूँगा मुशायरे में आपकी ग़ज़ल से गुज़र नहीं पाया था। बधाई स्वीकार करें। ये मुशायरे वाली ग़ज़ल ही है तो फिर अप्रकाशित नहीं रही। हालाँकि ग़ज़ल अच्छी है उसके लिए बधाई
Comment by Samar kabeer on January 31, 2017 at 2:10pm
वहाँ मैं आपका जवाब नहीं पढ़ स्का इसका खेद है,मेरे कहे को मान देने के लिये धन्यवाद ।
Comment by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on January 31, 2017 at 11:06am
मोहतरम जनाब कबीर साहब आदाब, आपकी इस्लाह के मुताबिक सातवें सैर के उला मिसरे को तब्दील कर दिया है...आपके लिखे अल्फाज़ मेरे लिए खुद किसी नेमत से बढ़कर हैं..मैंने तरही मुशायरे में आपकी इस्लाह के जवाब में नियामत और पा का इस्तेमाल करने की वजह दी थी..आपकी तरफ से कुछ और न कहा जाने को मैंने आपकी मंजूरी जान कर उसमें बदलाव नहीं किया था..आपने फिर समय निकाल कर इस्लाह की इसके लिए मम्नून हूँ.....
Comment by Samar kabeer on January 30, 2017 at 10:30pm
जनाब गंगाधर शर्मा'हिंदुस्तान'जी आदाब,आपने तरही मुशायरे की ग़ज़ल यहाँ पोस्ट कर दी ?
तरही मुशायरे में भी आपसे निवेदन किया था,आपने उस पर ध्यान नहीं दिया,ऐक बार फिर अर्ज़ करता हूँ,सातवें शैर में 'नियामत'कोई शब्द ही नहीं है,सही शब्द है "नेमत" और दूसरी बात,'पा'शब्द का अर्थ उर्दू में 'पाँव'होता है,आपका मिसरा यूँ कह सकते हैं :-
"पाके नेमत जो निज़ामत की सख़ावत छोड़ दे"

हाँ,अगर आपको अपनी ग़ज़ल पर इस्लाह पसन्द नहीं तो बता दीजिये? मैं अपना समय बर्बाद नहीं करूँगा ।

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