For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है // --सौरभ

2122  2122  2122  212

 

एक दीये का अकेले रात भर का जागना..
सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना !

सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच
फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !

फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है
क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।

राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?
सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !

क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी 
दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना ।

हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह
वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना !                         [ताज़ीम - इज़्ज़त, आदर

आज के हालात पर कल वक़्त जाने क्या कहे ?
किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना !
*************
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 1049

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2016 at 1:35pm

आदरणीय जवाहरलाल जी, आप मेरी प्रस्तुति पर आये, हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय, एक बात अवश्य साझा करना चाहूँगा. कि, ग़ज़लों की पंक्तियों को अभिधात्मक ढंग से यानी पंक्तियों के फेस वैल्यू के सापेक्ष नही लिया जाता. ग़ज़ल कुछ और कहती है. इसी कारण उयह कविता या गीत से अलग हुआ करती है.
पुनः हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2016 at 1:35pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, आप से अनुमोदन मुग्ध कर रहा है.
और, हाँ आदरणीया, आपको तो पता ही है, हम ऐसे ही हैं..
:-)))))))))))

सादर धन्यवाद..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2016 at 1:35pm

आदरणीय महेन्द्र कुमार जी, आपकी विशद विवेचना ने चकित किया है. आपका सहयोग बना रहे. ग़ज़ल की पंक्तियाँ वहीं नहीं कह रही होतीं जैसी पढ़ ली जाती हैं. यही तो हम सभी को सीखना है. उसी अनुरूप मैं भी अभ्यास करता हूँ.

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2016 at 1:34pm

आदरणीय सुशील सरना जी, आपका मुखर अनुमोदन आश्वस्त कर रहा है. सादर धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2016 at 1:34pm

आदरणीय समर साहब, आपसे मिली प्रशंसा आह्लादकारी हुआ करती है. सादर धन्यवाद.

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 6, 2016 at 11:50am
आदरणीय सौरभ पांडेय जी , बहुत खूबसूरत ग़ज़ल , बधाई , सादर।
Comment by Naveen Mani Tripathi on September 5, 2016 at 9:50pm
लाजबाब ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on September 5, 2016 at 8:03pm
आदरणीय सौरभ सर, नासमझ हूँ, हर तरह से और गजल तो मेरे लिए क्लिष्ट है ही ...पर आपकी हर पंक्ति, हर शेर एक से बढ़कर एक है ...फिर भी समापन की पंक्ति सुखद है मेरी नजर में - किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना ! अगर सचमुच मान्यवर जग रहे हैं तो बहुत ही सुखद है ... सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 5, 2016 at 7:26pm

बहुत  अच्छी ग़ज़ल हुई है आद० सौरभ जी शेर  दर शेर  बधाई लीजिये 

राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?
सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !--वाह्ह्ह्ह 

दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना ----रूम को रुम??...आप तो ऐसे न थे :-)))))) 

 

हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह 
वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना !   ---बहुत  सुंदर                      

Comment by Mahendra Kumar on September 5, 2016 at 6:46pm

एक दीये का अकेले रात भर का जागना..
सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना !      वाह! आज तक मैंने धर्म को ले कर जितनी भी परिभाषाएँ (अथवा व्याख्याएँ या उपमाएँ) पढ़ी हैं, उन सब में से यह मुझे सबसे अधिक पसन्द आयी। मेरी तरफ़ से इस शेर के लिए विशेष बधाई!

सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच
फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !      सच है, दिखावा करने वाले बहुत दूर तक नहीं जा पाते।

फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है
क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।      कई बार ऐसा ही लगता है, जब दुनिया ही बुरी है तो हमीं क्यों अच्छे। बहुत ख़ूब!

राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?
सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !     एक सैनिक ही है जो इन दिनों देश की निःस्वार्थ सेवा में संलग्न है। बाकियों का क्या कहें।

क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी
दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना ।        सर, इस शेर का सानी मुझे स्पष्ट नहीं हो सका।

हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह
वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना !           वाह! बहुत ख़ूब शेर!

आज के हालात पर कल वक़्त जाने क्या कहे ?
किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना !    वाह! वाह!!

आदरणीय सौरभ सर, आपकी ग़ज़ल बेहद पसन्द आयी। मेरी तरफ से हार्दिक बधाई स्वीकार करें, सादर!

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on नाथ सोनांचली's blog post कविता (गीत) : नाथ सोनांचली
"आ. भाई नाथ सोनांचली जी, सादर अभिवादन। अच्छा गीत हुआ है। हार्दिक बधाई।"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।"ओबीओ…See More
Sunday
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"धन्यवाद सर, आप आते हैं तो उत्साह दोगुना हो जाता है।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और सुझाव के लिए धन्यवाद।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. रिचा जी, अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। आपकी उपस्थिति और स्नेह पा गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ । आपके अनुमोदन…"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. रिचा जी अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई। "
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुइ है। हार्दिक बधाई।"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"शुक्रिया ऋचा जी। बेशक़ अमित जी की सलाह उपयोगी होती है।"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"बहुत शुक्रिया अमित भाई। वाक़ई बहुत मेहनत और वक़्त लगाते हो आप हर ग़ज़ल पर। आप का प्रयास और निश्चय…"
Saturday
अजय गुप्ता 'अजेय replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"बहुत शुक्रिया लक्ष्मण भाई।"
Saturday
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-175
"आदरणीय अजय जी नमस्कार अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार कीजिये अमित जिनकी टिप्पणी से सीखने को मिला…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service