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221 1222  221 1222 

 

तू यार बसा मन में  दिलदार बसा मन में

हद छोड़ हुआ अनहद विस्तार सजा मन में     

 

आकाश सितारों में जग ढूँढ रहा तुझको

 तू मेघप्रिया बनकर है कौंध रहा मन में

 

झंकार रही पायल स्वर वेणु प्रवाहित है 

आभास हृदय करता है रास रचा मन में

 

तू कृष्ण हुआ प्रियतम वृषभानु कुमारी मैं 

तन काँप उठा मेरा अभिसार हुआ मन मे

 

आवेश भरा विद्युत है धार प्रखर उसकी

आलोक स्वतः बिखरा जब तार छुआ मन में

 

जब चाँद हँसा करता जब रात मधुर होती

तू नींद चुरा लेता सौ द्वंद मचा मन में

 

रस सोम पिला तूने सब लूट लिया मेरा

‘शृंगार’ कहाँ अब है ‘निर्वेद’ धँसा मन में

 

मेघप्रिया /घनप्रिया - बिजली

 

(मौलिक /अप्रकाशित )

 

 (मौलिक व अप्रकाशित )

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 3, 2016 at 12:17pm

आ० निगम जी , आवेश भरी विद्युत  ही सही है  सादर


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Comment by अरुण कुमार निगम on September 2, 2016 at 10:59pm

आदरणीय गोपाल नारायन जी, अति उत्तम गजल ने मुग्ध कर दिया. बधाइयाँ 

आवेश भरा विद्युत  इस पंक्ति में मुझे शंका है कि भरी  होना चाहिए, कृपया समाधान करने का कष्ट करेंगे 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2016 at 9:43am

आ. बड़े भाई गोपाल जी , सलाह का मान रखने के लिये आपका आभार ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 2, 2016 at 8:52am

आ० अनुज , बहुत सही मार्ग दिखाया आपने . मैं इसका संशोधन अवश्य करूंगा . सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 1, 2016 at 10:22pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।

सौदामिनि    को आपनी  = 22 11 लिया है  मेरे खयाल से ये ग़लत है  ,  222 लिया जाना सही रहेगा । सोच के देखियेगा ।

Comment by रामबली गुप्ता on September 1, 2016 at 6:33pm
वाह वाह और सिर्फ वाह हर शेर अपने में उम्दा भावों को लिए हुए है। आकाश भर बधाई लीजिये।सादर
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 1, 2016 at 5:13pm
इस भावपूर्ण गज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय ।
Comment by Samar kabeer on August 31, 2016 at 5:53pm
जनाब डॉ,.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
Comment by Sushil Sarna on August 31, 2016 at 2:02pm

रस सोम पिला तूने सब लूट लिया मेरा
‘शृंगार’ कहाँ अब है ‘निर्वेद’ धँसा मन में

वाह आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब ... मन मोहते भावों की अप्रतिम प्रस्तुति। इस अद्भुत शाब्दिक सौंदर्य को निखरती ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 31, 2016 at 11:52am

वाह वाह आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर बहुत खूब, बेमिसाल ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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