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ग़ुल अहसासों के ......

ग़ुल अहसासों के ......

क्यों
कोई
अपना
बेवज़ह
दर्द देता है
ख़्वाबों की क़बा से
सांसें चुरा लेता है
ज़िस्म
अजनबी हो जाता है
रूह बेबस हो जाती है
इक तड़प साथ होती है
इक आवाज़
साथ सोती है
कुछ लम्स
रक्स करते हैं
कुछ अक्स
बनते बिगड़ते हैं
शीशे के गुलदानों में
कागज़ी फूलों से रिश्ते
बिना किसी
अहसास की महक के
सालों साल चलते हैं
फिर क्यों
इंसानी अहसासों के रिश्ते
ज़िंदा होते हुए भी
पल भर में टूट जाते हैं
गुल कागज़ के
ज़िंदा रहते हैं
ग़ुल अहसासों के
बिखर जाते हैं

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on August 8, 2016 at 4:14pm

आदरणीय श्याम नारायण जी प्रस्तुति को स्नेहिल टिप्पणी से सुशोभित करने का दिल से आभार। 

Comment by Sushil Sarna on August 8, 2016 at 4:13pm

आदरणीया राहिला जी मेरे सृजन को आत्मीय  मान देने का हार्दिक आभार 

Comment by Shyam Narain Verma on August 8, 2016 at 2:53pm
बहुत  ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति .. बधाई 
Comment by Rahila on August 7, 2016 at 9:35pm
एक और भावनाओं में डूबी बेहतरीन रचना के लिए बहुत बधाई।आपकी रचनाये सदैव मन लुभा लेती हैं।सादर नमन
Comment by Sushil Sarna on August 6, 2016 at 9:25pm

आ. सतविंदर जी प्रस्तुति में निहित भावों को अपना स्नेह देने का दिल से आभार। 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 6, 2016 at 8:10pm
उम्दा अहसासों एवं भावों का शब्द-सृजन आदरणीय सुशील सरना जी।

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