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गज़ल - दाग़ सभी के कुर्ते में -- ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  22  22  2

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मेरा ओछा पन भी उनको झूम झूम के गाता है

जिन शेरों में कुत्ता –बिल्ली, हरामजादा आता है

 

वफा और समझ का मानी एक कहाँ दिखलाता है

रख के टेढ़ी पूँछ भी कुत्ता इसीलिये इतराता है

 

खोटे दिल वालों की नज़रें, सुनता हूँ झुक जातीं हैं

और कोई बातिल सच्चों में आता है, हकलाता है  

 

वो क्या हमको शर्म- हया के पाठ पढ़ायेंगे यारो

जिनको आईना भी देखे तो वो शर्मा जाता है

 

सबकी चड्डी फटी हुई है, दाग़ सभी के कुर्ते में

जो जिसका सिलता- धोता है, वो ही उसको भाता है

 

पीस रहा है दाल अगर कोई अंधा सिल बट्टे में

तो फिर पीसी दाल ज़ियादा कुत्ता ही खा जाता है

 

शहर हमारा बँटा हुआ है बस्ती, डेरों- खेमों में

फूटी आँखों से भी कोई, किसको कहाँ सुहाता है

 

मेरी आँखों से नींदों-ख्वाबों की बातें मत करना

मेरी क़िस्मत में सदियों से लिक्खा ही जगराता है

 

किसी तसव्वुर को घुसने की नहीं इजाज़त दी हमनें

जो कुछ देखा, सुना- पढ़ा है वो ही लिक्खा जाता है

************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 5, 2016 at 8:00pm

आदरणीय जयनित भाई , गज़ल की मुखर सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 5, 2016 at 8:00pm

आदरणीय महेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका बेहद शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 5, 2016 at 7:59pm

आदरणीया राजेश जी , ग़ज़ल की सराहना और वैचारिक सहमति के लिये आपका आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 5, 2016 at 7:57pm

आदरणीय विजय शंकर भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 5, 2016 at 7:56pm

आदरनीय मनन भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

Comment by जयनित कुमार मेहता on July 5, 2016 at 7:17pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी,
शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आपको।
ग़ज़ल का प्रत्येक शेर सार्थक है! बहुत खूब।
Comment by Mahendra Kumar on July 5, 2016 at 9:34am
मकता बहुत ही पसन्द आया और उसके पहले का शेर भी! पूरी तंज़िया ग़ज़ल के लिये दाद क़ुबूल फ़रमायें आदरणीय गिरिराज सर। सादर!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 4, 2016 at 8:51pm

वाह वाह... ये लहजा ये तन्जकशी इस तरह  की आपकी पहली ग़ज़ल पढ़ रही हूँ बात आपकी खूब समझ आई कीचड़ में फंसो को निकालने के लिए कीचड़ में ही उतरना पड़ता है | बहुत  खूब  लिखी |दिल से बधाई लीजिये आद० गिरिराज जी 

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 4, 2016 at 8:28pm
प्रगति पथ पर चलते चलते कहाँ पहुंच गए हम
जिक्र वफ़ा का हो तो सिर्फ कुत्ता याद आता है।
युग को समर्पित बहुत सुन्दर प्रस्तुति, बधाई ,आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , सादर।
Comment by Manan Kumar singh on July 4, 2016 at 8:03pm
आदरणीय गिरिराज भाई, व्यवस्था के प्रति आज रंज हैं यह स्वाभाविक है।खरे शब्दों में मुखर आपका यह तंज अनसुनापन की प्रवृत्ति पर करारी चोट है,बधाई।

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