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इससे पहले कि इस ग़ज़ल पर कुछ कहूँ, निवेदन है कि आप मिसरों के वज़न को पन्द्रह गुरु के हिसाब से कर लें. ऐसी मात्रिक बहरों में लगातार दो लघुओं का कोई अर्थ नहीं होता. ये मात्रिक बहरें हैं जो कि फेलुन-फेलुन.. फ़ा के अनुसार निबद्ध होती हैं. यहाँ फेलुन की संख्या शाइर के अनुसार हुआ करती है, जिसमें दो गुरु होते हैं. यही कारण है कि आपकी इस ग़ज़ल के मिसरे का वज़न पन्द्रह गुरु का निवेदन कर रहा हूँ.
दूसरे, बहर कोई हो, उसमें अपने हिसाब से जोड़-तोड़ करने से बचना चाहिए. शुरुआती दौर में तो और भी इसे निषेध माना जाना चाहिए. बहर का निर्धारण आला दर्ज़े के उस्तादों का काम है, न कि हमारे-आपके जैसे अभ्यासियों का.
अब आपकी इस ग़ज़ल पर -
इस तरह की मात्रिक बहर की खुसूसियत इसकी गेयता या इसके मिसरों का प्रवाह हुआ करता है. वाचन में प्रवाह तनिक बाधित हुई तो सारा मिसरा लाख अच्छी कहन के कमज़ोर हो जाता है. आपने त्रिकल शब्दों की संभावनाओं का स्थान तय कर दिया है जो कि एक बन्धन की तरह सामने आया है. जबकि होना यह चाहिए था कि मिसरों में त्रिकल का स्थान खुला होता. इससे आपके शाइर को मात्रिकता के निर्वहन में सहजता होती.
उपर्युक्त संदर्भ में योंतो सारे मिसरों पर आप एक बार काम करलें, लेकिन चाह रहे हैं छू लें लेकिन, रूठने से हम डर जाते.. इस मिसरे को फिर से सहज करने की कोशिश करें, पंकज भाई.
वैसे इस बहर पर और इसके विन्यास पर तो आपसे टेलिफोन पर लम्बी बात हो चुकी है.
शुभेच्छाएँ
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