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कोई छेड़े न ग़र बेहतर- ग़ज़ल

बहुत बेचैन हूँ इस पल
कोई छेड़े न गर, बेहतर।
उठा भूकम्प है मन में
सभाले तो कोई ये घर।।

चली है आरी-ए-मतलब
नहीं बाक़ी शज़र कोई।
हुआ पूरा शहर नंगा
ये दिल तो हो गया बंज़र।।

कहाँ तुमको खिलाऊँगा
न वो पनघट न पानी है।।
लहर नफ़रत की बहती है,
बहुत ही ख़ार है अंदर।।

अभी तो नींद टूटी है
अभी दुनिया से मिलना है।
मिलाकर आँख कहना है
ज़रा दिखलाओ अपने "पर"।।

डरायेगा कोई मुझको
अतल गहराइयों से क्या?
बताया जाये तो उनको
कि पंकज का है पानी घर।।

मौलिक तथा अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 25, 2016 at 8:17pm
आदरणीय राहिला जी आपको बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 25, 2016 at 8:16pm
आदरणीय जयनीत भाई बहुत बहुत आभार
Comment by Rahila on May 16, 2016 at 9:29am
वाह. .आदरणीय सर जी! कितनी बेहतरीन रचना प्रस्तुत की है ।बहुत बधाई आपको ।सादर नमन
Comment by जयनित कुमार मेहता on May 15, 2016 at 3:38pm
वाह! आदरणीय पंकज जी, अलग अंदाज़ की आपकी ये रचना बहुत पसंद आई। बधाई आपको।
सादर!!
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 12, 2016 at 2:15pm
आदरणीय सुशील सर सादर प्रणाम और बहुत बहुत शुक्रिया
Comment by Sushil Sarna on May 12, 2016 at 1:55pm

कहाँ तुमको खिलाऊँगा
न वो पनघट न पानी है।।
लहर नफ़रत की बहती है,
बहुत ही ख़ार है अंदर।।

बहुत खूब आदरणीय पंकज जी .... इस खूबसूरत प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।

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