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हालात उतने भी ख़राब नहीं ( लघुकथा)

हालात उतने भी खराब नहीं

घड़ी पर नज़र डाल शांता बुदबुदाई, “छः बज गए, श्वेता ने फोन नहीं किया अभी तक! कितनी बार कहा है कि ऑफिस में मनाही है तो क्या हुआ, बाहर निकलने पर तो तुरंत फोन कर दिया करे. पता है पापा भी घर पर नहीं हैं और मैं अकेली हूँ, पर ये आज कल के बच्चे माता-पिता की चिंता समझे तब ना!”
‘ओह! अब तो साड़े छः हो गए, मैं ही कर लूँ,’ सोच शांता ने फोन मिलाया
टिक-टिक-टिक ट्रिंग!
फोन कट गया. दुबारा मिलाने पर दो बार ट्रिंग-ट्रिंग हुई और फोन कट गया. फिर चार बार, आठ बार...
घड़ी की बढती हुई सुइयों के साथ-साथ बढती घबराहट के साथ, बीसियों बार नंबर मिला डाला, पर फोन पर दूसरी ओर से वही संदेश बजता रहा स्विच ऑफ का.
थोड़ी ही देर हुई थी, कि फोन की घंटी बज उठी. शांता ने दौड़ कर फोन उठाया, “हैलो! हाँ बेटा, मैं... माँ... हाँ-हाँ, बोल ना? सुन रही हूँ, श्वेता, बोल बेटा...”
मगर उधर से फोन कट चुका था.
शांता की घबराहट का ओर छोर ना था. सिर घूमने लगा, आखों के आगे अँधेरा छाने लगा. अखबार की सुर्खियाँ, समाचारों की हेडलाइन सब जैसे चारो ओर गोल गोल घूमने लगीं. सिर से पैर तक पसीने में डूबी शांता, कमरे से बरामदे तक, फिर बरामदे से गेट तक, और गेट से कब सड़क तक आ खड़ी हुई, खुद भी याद ना था. याद थी, तो पिछले दिनों की खबरें और अपनी बेटी श्वेता.
चकरा कर गिरने ही वाली थी, कि पीछे से आकर किसी ने थाम लिया...
“अरे माँ! आप यहाँ क्यों खड़ी हो?”
“तू ठीक तो है बेटा?” शांता ने पूछा.
“हां, माँ, मैं ठीक हूँ... मेरे फोन की तो बैटरी चली गई थी. दोस्त के फोन से आपको मिलाया भी, मगर चलती बस मे सिंग्नल नही मिल पा रहा था...”
बेटी के साथ एक अजनबी चेहरा भी था. शांता ने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा.
“इतनी देर हो गई थी,कि इनको अकेले भेजना ठीक ना लगा. मैं बस-स्टैंड से अपनी बाइक लेकर घर छोड़ने चला आया. बिटिया को अक्सर आते जाते देखा है मैंने अपनी बस में.”
शांता कृतज्ञ भाव से उस बुज़ुर्ग बस-कंडक्टर को देखती रह गई. चेहरे पर अब भी घबराहट के भाव बाकी थे.
“ओहो, माँ! इतनी परेशान मत हो, सब ठीक है! हालत उतने भी खराब नहीं हैं...” श्वेता ने मुस्कुरा कर माँ की ओर देखा और बाँह पकड़ कर घर के भीतर ले गई.

मौलिक एवं अप्रकाशित
सीमा सिंह

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Comment by Archana Tripathi on April 7, 2016 at 10:57am
माँ की चिंता दर्शाती बढ़िया कथा
Comment by Archana Tripathi on April 7, 2016 at 10:56am
माँ की चिता दर्शाती बढ़िया कथा
Comment by रामबली गुप्ता on March 17, 2016 at 6:21am
बहुत ही सुंदर चित्रण आ.सीमा जी
Comment by Pawan Jain on March 16, 2016 at 11:43am

बढ़िया कथा ,माँ की स्वभाविक चिंता ,बच्चों की बेफिक्री का बढि़या चित्रण ।बधाई सीमा जी ।
बुजुर्ग बस कंडक्टर का साथ अनावश्यक एवं अतिशयोक्ति ।सादर ।

Comment by Seema Singh on March 15, 2016 at 6:36pm
आभार आ० सुशील जी आपने कथा पर समय दिया ।यूँ तो गुरुजन कहते है कि कथा पर सफाई देने की आवश्यकता नही होनी चाहिए किंतु आपकी टिप्पणी घटनाक्रम को लेकर है तो मैं मात्र इतना कहना चाहती हूँ कि निर्भया भी मेच्योर थी और स्वयं घर जाने में सक्षम भी।
Comment by Ram Sharma on March 15, 2016 at 12:07pm

बेहतरीन प्रस्तुति, आद० सुशील शर्मा जी से मैं भी सहमत हूँ

Comment by Samar kabeer on March 14, 2016 at 6:19pm
मोहतरमा सीमा सिंह जी आदाब,इस सुंदर लघुकथा के लिये बधाई स्वीकार करें ।
Comment by TEJ VEER SINGH on March 14, 2016 at 2:06pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सीमा सिंह जी!बहुत सुंदर लघुकथा!

Comment by Sushil Sarna on March 14, 2016 at 1:28pm

आदरणीया सीमा जी माँ की चिंता को आपने बड़े स्वाभाविक ढंग से चित्रित किया है। हार्दिक बधाई।  आ.सीमा जी क्षमा सहित बच्ची आफिस में काम करती है तो मेच्योर है और इतनी सक्षम है कि वो स्वयं बिना किसी की मदद के घर आ सकती है दूसरा शाम का समय अगर कोई बच्ची हो तो सही लगता है लेकिन कोई बुजुर्ग किसी यंग को घर छोड़ने आये तो बड़ा अजीब सा लगता है।  मेरे विचार से पांच लाईन हालात उतने भी बुरे नहीं लेकिन हालात कब बुरे हो जाएँ ये नहीं खा जा सकता अतः सावधानी और सजगता की सदैव बरतनी चाहिए। जरा सी लापरवाही अनर्थ कर सकती है। खैर ये मेरा विचार है कृपया इसे अन्यथा न लेवें। यदि बुरा लगे तो क्षमा करें आदरणीया। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 14, 2016 at 11:42am

आ० सीमा जी , माँ तो आखिर माँ होती है हालत अच्छे हों या बुरे उसकी चिंता तो बच्चो के प्रति निरंतर होती ही है . आज जैसा दौर चल रहा हो माँ का अत्यधिक चिंतित होना लाजमी है पर इससे मुक्ति भी वही दिल सकती है l

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