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वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का

जागो साथी समय नहीं है ये सोने का

 

बेहद मेहनतकश है पूँजी का सेवक अब

जागो वरना वक्त न पाओगे रोने का

 

मज़लूमों की ख़ातिर लड़े न सत्ता से यदि

अर्थ क्या रहा हम सब के इंसाँ होने का

 

अपने पापों का प्रायश्चित करते हम सब

ठेका अगर न देते गंगा को धोने का

 

‘सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को

वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने का

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 5, 2016 at 11:48pm

शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 5, 2016 at 11:04am

वाह बहुत खूब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2016 at 10:44am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि शुक्ला जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2016 at 10:39am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया कान्ता जी
Comment by Ravi Shukla on March 2, 2016 at 6:08pm

आदरनीय धर्मेन्द्र  जी  बहुत अच्छी गज़ल कही है आपने , हार्दिक बधाई स्‍व्‍ीकार करें ।

Comment by kanta roy on March 2, 2016 at 4:19pm
आज के हालातों पर आपका शायर मन बहुत कुछ कह गया है इन अशआरों के माध्यम से । बढ़िया गजल कही है आपने आदरणीय धर्मेन्द्र जी । बधाई स्वीकार कीजिये ।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2016 at 10:13am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय पंकज जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2016 at 10:12am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय उमाशंकर जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2016 at 10:11am
आदरणीय समर कबीर जी, आप सही कह रहे हैं ग़ज़ल के अरकान लिखना भूल गया हूँ। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने एवं ग़ज़ल पसंद करने के लिए धन्यवाद।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2016 at 10:09am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

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