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ग़ज़ल -- ‘चलो अपनी सुनाते हैं’ (मिथिलेश वामनकर)

1222—1222—1222—1222

 

घरौंदें, आस में अक्सर यही जुमलें सुनाते हैं 

‘परिन्दें, शाम होती है तो घर को लौट आते हैं’

 

वों तपते जेठ सा तन्हां हमेशा छोड़ जाते हैं

मगर आँखों के सावन में भला क्यों लौट आते है

 

कभी जिनके उजालों से रहे हैं खून के रिश्तें

अंधेरों की कदमबोसी वो करने रोज़ जाते हैं

 

मुझे महसूस होती है तरसती मुन्तजिर आँखें

चलो अब गाँव चलते है कि माँ को देख आते हैं

 

अजब हैं लोग सच कहने में भी नज़रें चुरा लेंगे

मगर जब झूठ कहना हो तो गंगाजल उठाते है

 

मयस्सर है नहीं यारों कफ़न के वास्ते कपड़ा

न जाने किस तरह से वो नए परचम बनाते हैं

 

न हंसने का इरादा है न रोने की यहाँ फुरसत

लगे है सब इसी जिद में ‘चलो अपनी सुनाते हैं’

 

इरादे आसमानी हो तो रस्ते खुल ही जायेंगे

परिन्दें ठान लेते है तो तिनके ढूंढ़ लाते हैं

 

अगर दिल में ठिकाना है, तो क़दमों को खबर कर दो

ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं

 

जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे

चलो तुमको हमारे गाँव के बरगद दिखाते हैं

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 13, 2015 at 2:31am

आदरणीय सुनील जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 

Comment by shree suneel on August 13, 2015 at 12:51am
एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत शे'र हैं इस ग़ज़ल में आदरणीय मिथलेश वामनकर सर जी. हार्दिक... हार्दिक बधाइयाँ आपको इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 12, 2015 at 8:32pm
आदरणीया प्रतिभा जी ग़ज़ल की सराहना के लिए आभार।
Comment by pratibha pande on August 12, 2015 at 8:10pm
'मगर जब झूढ़ कहना हो तो गंगाजल उठाते हैं 'बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है आ० मिथिलेश जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 11, 2015 at 6:24pm

आदरणीय रवि जी यही इस मंच की विशेषता है कि यहाँ सभी समवेत सीखते है. सादर 

Comment by Ravi Shukla on August 11, 2015 at 5:52pm

आदरणीय मिथिलेश जी एवं आदरणीय गिरिराज जी

अशआर एवं उन पर सुधिजनों  की इस्‍लाह पढने के लिये बार बार लौट आते है 

लौट कर आने से चर्चा को पढकर जो ज्ञान मिलता है वो ही पूंजी है हमारी ।

आभार आदरणीय , इन इस्‍लाह के बहाने से कुछ सिखाने के लिये


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 11, 2015 at 3:56pm

बढ़िया इस्लाह........ बहुत बहुत आभार सर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2015 at 3:53pm

चलो हम गाँव चलके आज माँ को देख आते हैं , किया जा सकता है


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 11, 2015 at 3:38pm

एक गलती हो रही है कुछ सोचता हूँ-

अब और आज एक ही मिसरे में अजीब लग रहे है 

चलो अब गाँव चल के आज  माँ को देख आते हैं


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 11, 2015 at 3:36pm

आदरणीय गिरिराज सर, आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहता है. आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन मिल गया तो आश्वस्त हुआ हूँ. 

अंधेरों को अँधेरों  करता हूँ .

आपने सही कहा - 'कि' भर्ती का शब्द लग रहा है. आपके मार्गदर्शन अनुसार सुधार करता हूँ.

चलो अब गाँव चल के आज  माँ को देख आते हैं

ग़ज़ल की सराहना, मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर

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