2122 2122 2122 212
हो गया सागर लबालब अब उफनना चाहिए,
चल रहा मंथन बहुत कुछ तो निकलना चाहिए।
आग यह कबसे दबायी है अभी अंतर सुनो,
कब तलक सुलगे उसे अब तो धधकना चाहिये।
बेइमां अब साहिबां सब क्यूँ हमारे हो गये?,
आज एक उनमें कहीं वाजिब निकलना चाहिये।
है सड़क से राह ले जाती सियासत तक अभी,
अब तुझे भी आप ही घर से निकलना चाहिये।
ले गये सब मोड़ते नदियाँ कहाँ ये बावरे?
इक नदी का रुख अभी भी तो बदलना चाहिये।
क्षीण कितनी है नदी की धार देखा कीजिये,
वक्त है अब तो हमें थोड़ा सँभलना चाहिये।
मेड़ अबतक तो बनाते हैं रहे सब ताज़दाँ,
आ चलें अंधी गुफा से अब निकलना चाहिये।
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'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन
Comment
वाह आदरणीय वाह बहुत ही खूबसूरत अशआर कहे हैं आपने .... इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं।
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