2122 / 2122 / 212 |
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आजकल जो मित्रवत व्यवहार है |
एक धोखा है नया व्यापार है |
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सर्जना भी अब कहाँ मौलिक रही |
जो पढ़ेंगे आप वो साभार है |
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वो मनुजता मारकर बैठे है मित्र |
आपका रोना यहाँ बेकार है |
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किस तरह संवेदनाएं जुड़ सके |
आज के सम्बन्ध तो बेतार है |
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देश में अदभुत व्यवस्था रच रहे |
स्वप्न भी उनका कहाँ साकार है |
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पुष्प की वर्षा हुई तो जान लो |
एक कंटक भी वहां तैयार है |
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हम गगन के स्वप्न में खोए रहे |
और खिसका जा रहा आधार है |
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एक निर्धन को मनुज माना, चलो |
आपका सबसे बड़ा उपकार है |
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जब मिले हैं बस उसे पत्थर मिले |
वृक्ष शायद वह बहुत फलदार है |
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Comment
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय मिथिलेश जी, दाद कुबूल करें। "आज के सम्बन्ध" की जगह "आज का सम्बन्ध" होगा।
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