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2122  2122 2122 2  

फाईलातुन  फाईलातुन  फाईलातुन फा  

हम किसी से मिलने उसके घर नहीं जाते

आप भी  है जिद  में मेरे दर नहीं आते

 

बेबसी  महबूब  की किस भाँति  समझाऊँ  

आज भी  उनको   मेरे  चश्मेतर नहीं भाते

 

जिन्दगी  बीती  है उनकी  सूफियाना सी   

मस्त तो है  रहते   साजो पर नहीं गाते

 

इश्क  में हूँ  जांबलब  मेरा  भरोसा क्या

फ़िक्र उनको  कब है  चारागर  नहीं लाते

 

एक साया उसका   बांटी  जिन्दगी  हमने  

अन्यथा जीवन में  कुछ भी कर नहीं पाते

(मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2015 at 3:09pm

आ० समर कबीर साहिब आपने बिलकुल सही फरमाया . हम नौशिखिये भटक ही जाते हैं , मुआफी चाहता हूँ .  सादर .

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 19, 2015 at 2:57pm
आदरणीय समर साहब जी माफ किजिएगा इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया क्षमा।
Comment by Samar kabeer on June 19, 2015 at 2:08pm
जनाब राहुल डांगी जी,जनाब गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,आदाब,पहले तो ये तय कीजिये इसमें रदीफ़ और क़ाफ़िया है क्या,"घर","दर","पर" अगर इस ग़ज़ल के क़ाफ़िये हैं तो फिर रदीफ़ क्या है ? ग़ज़ल में क़ाफ़िये बदलते हैं रदीफ़ नहीं,मतले के पहले मिसरे में "जाते",और दुसरे मिसरे में "आते" ,इसी प्रकार हर शैर में हर शैर में यही क्रम है-"आते","जाते","गाते","भाते", इस लिहाज़ से इस ग़ज़ल की रदीफ़ हुई "ते" और क़ाफ़िया हुए "आ","जा","भा","गा",मैंने इसी लिहाज़ से इस मिसरे का सुझाव दिया था और ये ग़लत नहीं है ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2015 at 10:34am

प्रिय कृष्णा

आपकी शुभ कामना काआभार .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2015 at 10:33am

आ० समीर कबीर जी

राहुल जी ने जो कहा  उससे मैं  भी सहमत हूँ , कृपया  कुछ और  तजबीज कीजिये . सादर .

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 19, 2015 at 10:26am

जिन्दगी  बीती  है उनकी  सूफियाना सी   

मस्त तो है  रहते   साजो पर नहीं गाते

ख़ूब आ० गोपाल सर! आ० आप स्वयम में सक्षम है गजल सीखने में ये त्रुटीयां आम है,अभ्यास धीरे धीरे इन्हें दूर करेगा!नमन!

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 19, 2015 at 8:59am
आदरणीय समर कबीर जी आपने भूल से काफिया ही छोड दिया सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2015 at 8:44am

आ० नीलेश जी

आप् जैसे  गुनी जनो से जो हौसला मिलता है उसी के बल पर अपने को आजमा रहा हूँ . बस प्यार बना रहे . . सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2015 at 8:41am

आ० सोमेश

गजल विधा पर मेरे कदम नए है , जब मैं हिन्दी का  छात्र था तब तक हिंदी में गजल विधा स्थापित नहीं हुयी थी . पर कोशिश जारी है .

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 19, 2015 at 7:50am

बहुत कूब प्रयास है आदरणीय ..वरिष्ठजनों ने सुधार सुझाएँ हैं अत: उस विषय पर कुछ नहीं कहूँगा. आप की लगन और ग़ज़ल के प्रति प्रेम बस ऐसे ही बना रहे..यही दुआ है.
मुझे लगता है कि आप लय के अनुसार लिख रहे हैं जो अच्छी बात है लेकिन बाद में हर मिसरे की तक्तीअ (मात्रा गणना) करने से आप स्वयं ये जान पाएँगे कि चूक कहाँ हो रही है ..
सादर  

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