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हजज  मुरब्बा सालिम     

1222            1222

 

खुदा से जो भी डरता है

खुदा को  याद करता है

 

समय  है  जानवर ऐसा

जरा  धीरे से  चरता है

 

कृषक की छातियाँ देखो

पसीना  नित्य  झरता है

 

बिछे  जब राह  में काँटे

पथिक पग सोंच धरत़ा है

 

भला है  जानवर  उससे

उदर  जो आप  भरता है

 

अमर  तो  है  वही बेटा

वतन पर सद्य मरता है

क्षरण तो है यहाँ निश्चित

विहँस कर काल छरता है

 

खजाना आँख का है यह  

कभी मोती  सा ढरता है

 

नदी गंगा का यह पानी

बिना  तारे  न तरता है 

 

बरत  वैसा  न  पायेंगे

जहाँ  ने  जैसा बरता है

 

रहा  मनहर  हमेशा जो

वही इस मन को हरता है  

(मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 25, 2015 at 9:52am

आ० वामनकर जी

आपका आभार .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 25, 2015 at 3:50am

बरत  वैसा  न  पायेंगे

जहाँ  ने  जैसा बरता है

ये शेर बस वाह वाह वाह 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 25, 2015 at 3:50am

कमाल कमाल कमाल 

आदरणीय गोपाल नारायण सर 

बहुत ही बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है 

छोटी बह्र में में आपने शानदार ग़ज़ल कही है 

दाद दाद दाद

ढेर सारी दुआ 

आप ऐसे ही बेहतरीन गज़लें लिखते रहे 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 17, 2015 at 2:38pm

आ० आशुतोष जी

आपका सादर आभार .

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 17, 2015 at 1:47pm

आदरणीय गोपाल सर जीवन दर्शन से जुड़े तमाम पहलुओं का बखूबी चित्रन करती इस शानदार रचना के लिए आपको ढेर सारी बधाई ..सादर प्रणाम के साथ 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 16, 2015 at 9:10pm

आ० निकोर जी

अभी सीख रहा हूँ आदरणीय . ससम्मान .

Comment by vijay nikore on June 16, 2015 at 6:32pm

गज़ल बहुत अच्छी लगी। बधाई, आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 16, 2015 at 4:10pm

आ० समर कबीर साहिब

आप बेवजह परेशान है .यहाँ हम सबसे गल्तियां  होती हैं और हम सब बैठकर उसे सही भी करते हैं . आपकी महारत से सब वाकिफ है आप निर्द्वंद मेरी रचनाओं पर अपनी  राय देते रहे . सादर.

Comment by Samar kabeer on June 16, 2015 at 2:37pm
आली जनाब डॉ गोपाल नारायन श्रीवस्ताव जी,आदाब,
"बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई"

जनाब वीनस जी की प्रतिक्रिया से होश आया,वाक़ई मैंने अरकान सुने बग़ैर इस्लाह शुरू कर दी,ज़िन्दगी में पहली बार ऐसी भूल हुई है,मैं आपसे बहुत शर्मिंदा हूँ और मुआफ़ी चाहता हूँ ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 16, 2015 at 12:53pm

आ० चाहं जी

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