स्वप्न-भाव
मुझको सपने याद नहीं रहते
दर्द की कोख से जन्मे एक सपने के सिवा
आत्मीय पहचान का गहरापन ओढ़े
बार-बार लौट आता है वह
पलकों के पीछे के अंधेरों से धीरे-धीरे
जीवन के अंगारी तथ्यों की ज्वलन्त
सच्चाई की चिरन्तन खोज में
आदतन अनदीखे आत्मा तक मेरी
तुम्हारी तरह
शायद रह गया हो उसका कुछ अपना यहाँ
या, तुम ही कुछ भूल गई थी क्या
जो रह गया प्राणों में काँटे-सा चुभा
दर्द भरे अकुलाते अनुभव-सा
मुझमें
लिए दुख की कथाएँ
आशंका की काली छायाएँ
हमेशा के लिए ...
आत्म-मन्थन करती बेचैन भीतरी सोच
खोल देती है अधबने सपने में भी
नव-आविश्कृत
अर्थहीन प्रश्नों के द्वार
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मुझको सपने याद नहीं रहते
दर्द की कोख से जन्मे एक सपने के सिवा ... अद्भुत अभिव्यक्ति ! आदरणीय, विजय भाईसाहब, इस पंक्ति केलिए मैं हृदय तल से बधाई देता हूँ.
आत्मीय पहचान का गहरापन ओढ़े
बार-बार लौट आता है वह
पलकों के पीछे के अंधेरों से धीरे-धीरे
जीवन के अंगारी तथ्यों की ज्वलन्त
सच्चाई की चिरन्तन खोज में
आदतन अनदीखे आत्मा तक मेरी
तुम्हारी तरह .... ..................... प्रतीकात्मकता में आपकी छाप स्पष्ट है. किसी जीवन में किसी की उपस्थिति की इतनी सुन्दर अनुभूति ! आत्मीय ऐक्य का इतना मनोहारी अनुभव !! वाह !!
आपकी अभिव्यक्तियों में चिर प्रतीक्षा और भावमय अपूर्णता के प्रति आपके कवि का उत्कट व्यवहार मुझे सदा मनोमय दशा की अवधारणा के प्रति आश्वस्त करता है.
इस प्रस्तुति के लिए सादर धन्यवाद, आदरणीय.
सादर
आ0 निकोर सरजी, कविता दिल को छू गयी. हार्दिक बधाई स्वीकारे सादर
निकोर जी
वेदने ! तू भी भली बनी
तुझ मे ही तो मैंने पायी अपनी छांह घनी ----------मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ आपको सादर समर्पित .
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