For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल नूर- बातों को ज़हरीला होते देखा है.

२२२२/२२२२/२२२ 
.
आँखों को सपनीला होते देखा है
ख़्वाबों को रंगीला होते देखा है.
.
क़िस्मत ने भी खेल अजब दिखलाए हैं
पत्थर भी चमकीला होते देखा है.
.
सादापन ही कौम की थी पहचान जहाँ
पहनावा भड़कीला होते देखा है.
.
मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
शहरों को भी टीला होते देखा है.
.
कुर्सी की ताक़त है जाने कुछ ऐसी
बूढा, छैल-छबीला होते देखा है.    
.
आज तुम्हारे होंठो पर नीलापन था
बातों को ज़हरीला होते देखा है.
.
वक़्त के हंटर नंगी पीठ पे पड़ते ही,
हर तेवर को ढीला होते देखा है.  
.
खेत खा गया कंक्रीट का ये जंगल
गाँवों को शहरीला होते देखा है.   
.
‘नूर’ न पूछो सुर्खी क्यूँ है आँखों में  
दो हाथों को पीला होते देखा है.
.
नूर 
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 795

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 23, 2015 at 7:16pm

शुक्रिया आ. सौरभ सर.
इस ग़ज़ल को कुछ समय बाद फिर कहने का प्रयास करूँगा. अभी ख़याल इन्ही ख़यालों के गिर्द मंडरा रहे हैं. 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 23, 2015 at 7:15pm

शुक्रिया दिनेश जी 

Comment by दिनेश कुमार on April 23, 2015 at 5:41pm
बहुत खूब आदरणीय निलेश भाई साहब। वाह

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 23, 2015 at 5:07pm

आपकी बेजोड़ कहन पर वीनस भाई का तबसिरा .. मजा आ गया !
उनके सभी विन्दुओं को आपने अपने संशोधन में नहीं लिया है. लेकिन लेना था. आपके संशोधन को देखने के बाद कह रहा हूँ.

अलबत्ता, वीनस भाई निम्नलिखित शेर की महीनी को नज़रन्दाज़ कर रहे हैं शायद. वर्ना ’शहरों को भी’ के ’भी’ पर प्रश्न न करते..

मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
शहरों को भी टीला होते देखा है................. यहाँ भी की क्या ज़रुरत है ?

मेरी समझ से इस ’भी’ का दम ही इस शेर को वो ऊँचाई दे रहा है जिसका वह हक़दार है.

सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2015 at 4:37pm

शुक्रिया आ. धर्मेन्द्र कुमार जी. कमेंट्स में परिष्कृत रूप में उपलब्ध है
सादर  

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 18, 2015 at 4:34pm
अच्छे अश’आर हुए हैं नीलेश जी, दाद कुबूलें।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2015 at 11:23am

शुक्रिया समर कबीर साहब .. नया वर्शन भी कमेंट्स में है 
सादर 

Comment by Samar kabeer on April 18, 2015 at 10:59am
जनाब निलेश "नूर" जी,आदाब,वाह वाह वाह !बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है,हर शैर कमाल का हुवा है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2015 at 9:12am

शुक्रिया आ. वीनस जी. आपकी इस विस्तृत टिप्पणी ने बहुत मार्गदर्शन किया है. चिन्हित शेर या यूँ कहें कि पूरी ग़ज़ल फिर से कहने की कोशिश की है. साथ ही एक नया शेर भी जोड़ दिया है.
एक निवेदन है कि मेरी अन्य ग़ज़लें भी जाँच लें ..ताकि उनमे भी गुणात्मक सुधार हो सके.
सादर
.

आँखों को सपनीला होते देखा है
ख़्वाबों को रंगीला होते देखा है.
.
क़िस्मत ने भी खेल अजब दिखलाए हैं
इक पत्थर चमकीला होते देखा है.
.
सादापन था लोगों की पहचान, वहां  
पहनावा भड़कीला होते देखा है.
.
मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
कुछ शहरों को टीला होते देखा है.
.
कुर्सी की ताक़त पर हमनें बूढ़े को  
बाँका छैल-छबीला होते देखा है.    
.
आज तुम्हारे होंठो पर नीलापन था
बातों को ज़हरीला होते देखा है.
.
वक़्त का हंटर नंगी पीठ पे पड़ते ही,
हर तेवर को ढीला होते देखा है.  
.
बिल्डिंगों को उगते देखा खेतों में
गाँवों को शहरीला होते देखा है.   
.
बातों ही बातों में हमनें बातों का
नश्तर और नुकीला होते देखा है.
.
‘नूर’ न पूछो सुर्खी क्यूँ है आँखों में  
दो हाथों को पीला होते देखा है.

  

Comment by वीनस केसरी on April 18, 2015 at 3:04am

आँखों को सपनीला होते देखा है
ख़्वाबों को रंगीला होते देखा है. .... अच्छा कहा भाई क्या कहने
.
क़िस्मत ने भी खेल अजब दिखलाए हैं
पत्थर भी चमकीला होते देखा है............ पढने में तो मज़ा दे रहा है .. शेर का कोई विशेष अर्थ हो तो बताएं ... भी की क्या ख़ास ज़रुरत थी जबकि को का इस्तेमाल जियादा मुफ़ीद होता
.
सादापन ही कौम की थी पहचान जहाँ
पहनावा भड़कीला होते देखा है..............जहां के साथ वहां की ज़रुरत महसूस होती है ... पूरी कौम के लिए सादापन विशेषण खटकता भी है ...   एक व्यक्ति को टार्गेट करते तो बेहतर होता
.
मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
शहरों को भी टीला होते देखा है................. यहाँ भी की क्या ज़रुरत है ?
.
कुर्सी की ताक़त है जाने कुछ ऐसी
बूढा, छैल-छबीला होते देखा है.    .... जाने शब्द भर्ती का है  को शब्द की नामौजूदगी खटकती है मगर बहर की मजबूरी है ...
.
आज तुम्हारे होंठो पर नीलापन था
बातों को ज़हरीला होते देखा है.......... अच्छा शेर कहा है बधाई
.
वक़्त के हंटर नंगी पीठ पे पड़ते ही,
हर तेवर को ढीला होते देखा है.  अच्छा शेर है ... वक्त के को वक्त का कर लीजिये ... के से हंटर बहुवचन हो जा रहा है अर्थात कई बार पड़े ... मगर आप ही आगे लिखते हैं .. पड़ते ही
.
खेत खा गया कंक्रीट का ये जंगल
गाँवों को शहरीला होते देखा है.   ... कंक्रीट को कंकरीट पढना कितना सही होगा इस पर विचार करें ... साथ ही जब तक पूरा शेर न पढ़ा जाए पहला मिसरा भ्रमित करता है ... खेत खा गया कंक्रीट के जंगल को अभी ऐसा अर्थ भी निकल रहा है., शहरीला प्रयोग के लिए बधाई  
.
‘नूर’ न पूछो सुर्खी क्यूँ है आँखों में  
दो हाथों को पीला होते देखा है......... बढ़िया कहा
.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर updated their profile
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पांडेय सर, बहुत दिनों बाद छंद का प्रयास किया है। आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकर खुशी…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार "
yesterday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service