ग्रीष्म में तपता हिमाचल, घोर बृष्टि हो रही
अमृत सा जल बन हलाहल, नष्ट सृष्टि हो रही
काट जंगल घर बनाते, खंडित होता अचल प्रदेश
रे नराधम, बदल डाले, स्वयम ही भू परिवेश
धर बापू का रूप न जाने, किसने लूटा संचित देश
मर्यादा के राम बता दो, धारे हो क्या वेश
मोड़ी धारा नदियों की तो, आयी नदियाँ शहरों में
बहते घर साजो-सामान, हम रात गुजारें पहरों में.
आतुर थे सारे किसान,काटें फसलें तैयार हुई
वर्षा जल ने सपने धोये, फसलें सब बेकार हुई
लुट गए सारे ही किसान,अब नहीं फायदा खेती में
मिहनत करते हाड़ तोड़ते, बीज मिट गए सेती में.
इससे अच्छा लो जमीन अब, रोजगार दो मुझको भी,
काम महीने भर करावा लो, दो पगार अब मुझको भी
चाहे कोई खेल खेला लो, गीत खुशी के गाऊंगा
चला मशीनें घर आऊंगा, बच्चों के संग खाऊँगा
कुछ भी कर लो मेरे आका, नहीं सहन अब होता है
नही चाहता मरना असमय, बच्चों का दुख होता है
ऐसी क्या सरकार बनेगी, समझे ऐसे मसलों को
लागत पर ही मूल्य नियत हो, बीमित कर दे फसलों को
हम भी आखिर मतदाता हैं, कहलाते हैं अन्नदाता ,
नारों से न पेट भरेगा, हमें समझ में है आता
मिहनतकश हूँ सो लेता हूँ, चाहे बिस्तर हो रुखड़ा,
नहीं बुझेगी जठराग्नि तो, किसको रोऊँँ मैं दुखड़ा?
(मौलिक व अप्रकाशित)
- जवाहर लाल सिंह
Comment
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, उत्साह बढ़ाने के लिए आपका अतिशय आभार! सादर!
आदरणीया प्रतिभा त्रिपाठी जी, सादर अभिवादन! उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आभार!
आदरणीय श्री श्याम नारायण वर्मा जी, उत्साह बढ़ाने के लिए अतिशय आभार!
आदरणीय डॉ. विजय शंकर सर, उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार ...आपने पंक्तिया चिन्हित कर रचना का मान बढाया है ...सादर!
आदरणीय श्री गोपाल नारायण सर, सादर अभिवादन! आपकी उत्साहवर्धक प्रेअत्क्रिया से मन प्रफ्फुल्लित हो गया! सादर!
आदरणीय जवाहर जी अच्छी प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई...... सादर
भावो से ओत प्रोत इस रचना के लिए हार्दिक धन्यवाद i |
आ० जवाहरलाल जी
अच्छी रचना हुयी है . आपको बधायी. सादर .
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