ऐ ज़िन्दगी !
सांसे चल रहीं है मेरी , इसलिये
मरा हुआ तो नहीं कह सकता खुद को
जी ही रहा होऊँगा ज़रूर, किसी तरह , ये मैं जानता हूँ
पर एक सवाल पूछूँगा ज़रूर
क्या सच में तू मेरे अंदर कहीं जी रही है ?
जैसे ज़िन्दगी जिया करती है
इस तरह कि , मै भी कह सकूँ जीना जिसे
उत्साहों से भरी
उत्सवों से भरी
उमंगों से सराबोर सोच के साथ , निर्बन्ध
चमक दार आईने की तरह साफ मन
प्रतिबिम्बित हो सके जिसमें शक्ल आपकी , खुद की भी , इसकी या उसकी, सभी की
जैसे कि दिखा देता है , एक निर्दोष, बेग़रज़ आईना हर किसी को
कहकहे लगा सकूँ, हर इक खुशी में ,
नाच उठे मेरा मन
चाहे वो खुशी किसी के हिस्से में आयी हो , मेरी या औरों की
भीग जायें मेरी आस्तीने आँसुओं से
आसपास की परिस्थितियों से स्वतः साझा हुये दुखों के निमित्त
संवेदनायें बहतीं रहें निर्बाध
करुना के काले बादल सदा बरस जाने को तैयार
उठ जायें स्वतः दुआओं के लिये मेरे दोनों हाथ
सबके लिये निकले दुआयें दिल की गराइयों से
कि ,
हे प्रभू सबको सुख , शांति दे , आनन्द दे
और दे प्रेम
सब के हृदय में सबके लिये
बस एक सवाल है ,
ऐ ज़िन्दगी ! कभी जी पायी है क्या तू ऐसी मुझमें ?
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय कृष्णा भाई , सरहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय श्याम नारायण भाई , सराहना के लिये बहुत आभार ।
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , आपका बहुत बहुत आभार ।
आदरणीय श्याम मथपाल भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत आभार ।
आदरणीय लक्ष्मण रामानुज भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय लक्ष्मण भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय गिरिराज सर जब कोई कवि लगातार रचना कर्म कर रहा हो और वो आप जैसा अनुभवी व्यक्ति हो तो कविता सहज ही ज़ुबान से, कलम से निकलती हैं। आपकी कविताओं की सहजता हैरत में डाल देती है। इस अतुकांत द्वारा भी आपने अपनी रचना को लोहा मनवाया है बहुत बहुत बधाई आपको
इस सहज और गंभीर रचना पर आपको हार्दिक बधाई आ. गिरिराज भंडारी जी |
सच! बहुत ही बेहतर लिखा, सर. आपकी अतुकांत कविताओं की बड़ी प्रतीक्षा रहती है. बहुत-बहुत बधाई आदरणीय गिरिराज जी
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