जिंदगी की कहानी सुनाता रहा
दर्द दिल के सभी मै छिपाता रहा
प्यार था या नहीं ये पता ही नहीं
बात क्या थी जिगर में दबाता रहा
जज़्ब होते रहे अश्क भीगे अधर
मुसकुरा कर निगाहें चुराता रहा
तोड़कर वो चली पारसा दिल मेरा
आइना कांच में मैं बनाता रहा
मुफलिसी में नहीं जो हुये हमसफर
हर कमाई उन्ही पर लुटाता रहा
जीतकर जो मुझे हारता ही रहा
हारकर भी उसे मैं जिताता रहा
तू बताना “निधी”मैं गलत तो नहीं
मर्म मेरा मुझे क्यों सताता रहा
निधि
Comment
वाह शब्द संयोजन बहुत खूब किया है और भाव उभर के आये हैं ...बधाई
यदि यह आपका पहला प्रयास है तो आप बहुत आगे तक जायेंगी, अच्छी प्रस्तुति हुई है, बहुत बहुत बधाई निधि जी.
Sundar rachna ke liye dheron badhai.
जज़्ब होते रहे अश्क भीगे अधर
मुसकुरा कर निगाहें चुराता रहा||
जीतकर जो मुझे हारता ही रहा
हारकर भी उसे मैं जिताता रहा
मंच का आगाज इतनी अच्छी गजल से ,,,आपको हार्दिक बधाई आपकी इस सुन्दर गजल हेतु आ. Nidhi Plus जी |
जज़्ब होते रहे अश्क भीगे अधर
मुसकुरा कर निगाहें चुराता रहा
तोड़कर वो चली पारसा दिल मेरा
आइना कांच में मैं बनाता रहा
आदरणीय बहुत सुंदर गज़ल कही आपने जहाँ तक मै समझ पा रहा हूँ
वज्न 212 212 212 212 है
पहली कोशिश इतनी उम्दा है, क्या कहने....... ढेरों मुबारकबाद ।
"मुफलिसी में न बन जो सके हमसफर" इस पंक्ति को क्या यूँ लिखा जा सकता है
"मुफ़लिसी में नहीं बन सके जो मेरे" .....
आपने अच्छा तर्क दिया है!मुबारकबाद!!
आप सभी का शुक्रिया .. ग़ज़ल पुरुष की तरह लिखी है .. नाम से क्या होता है
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए …………….. |
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