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प्रेत अफजल औ' कसाबों के यहाँ - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर’

2122   2122   212
********************
फिर  चिरागों  को बुझाने ये लगे
रास्ता  तम  का  सजाने ये लगे
****
प्रेत अफजल औ' कसाबों के यहाँ
कुर्सियाँ  पाकर   जगाने  ये  लगे
****
साजिशें  रचते  मरे  हैं  जो उन्हें
देश भक्तों  में  गिनाने  ये  लगे
****
देश  के  गद्दार   जितने  बंद  हैं
राजनेता  कह  छुड़ाने  ये  लगे
****
बनके अपने आज खंजर देख लो
आस्तीनों   में   छुपाने   ये  लगे
****
हौसला  दहशतगरों  का यार यूँ
घर  के भीतर  ही बढ़ाने ये लगे
****
है  नहीं  कश्मीर  भारत  देश में
बात फिर से बस जताने ये लगे
****
पाप  इनको  यार  ‘बंदे मातरम’
'पाक  जिंदाबाद’  गाने  ये  लगे
****
जाग जाओं जाँनिसारों जल्द अब
जाफरों   के  गीत  गाने  ये  लगे

****
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on March 12, 2015 at 12:47am

एक ऐसी प्रस्तुति जिसका अपना लिहाज है. कश्मीर की पृष्ठभूमि में जो कुछ हो रहा है उसकी बात अपने ढंग से ऐसी भी. अब समय ही बतायेगा कौन कितना सही था.

ग़ज़ल पर दाद कुबू करें भाईजी

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 11, 2015 at 11:11pm
साजिशें रचते मरे हैं जो उन्हें
देश भक्तों में गिनाने ये लगे
बहुत खूब , आदरणीय लक्षमण धामी जी बधाई , सादर।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 11, 2015 at 10:41pm

धामी!! सर जी आपकी इस गजल पर जांनिसार! क्या कश्मीर के हालत को अपने उतारा है साहेब! लाजवाब! अभिनन्दन!

Comment by maharshi tripathi on March 11, 2015 at 5:40pm

वाह !!!हर शेर काबिले तारीफ है ,,,बहुत सुन्दर आ.लछमन धामी जी |

Comment by Shyam Mathpal on March 11, 2015 at 1:31pm

Aadarniya Dhami Ji,

Aaj jo kashmir main halat hain, us sandharbh main ek samayik rachna. Badhai.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 11, 2015 at 12:54pm

dhaamee jee

सुन्दर, सामयिक ,बेहतरीन i स्नेह i

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