' मौन को भी जवाब ही समझें '
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जिन्दगी को हुबाब ही समझें
संग काँटे, गुलाब ही समझें
बदलियों ने चमक चुरा ली है
पर उसे माहताब ही समझें
शर्म आखों में है अगर बाक़ी
क्यों न उसको नक़ाब ही समझें
इक दिया भी जला दिखे घर में
तो उसे आफ़ताब ही समझें
ठीक है , टूटता बिखरता है
पर उसे आप ख़्वाब ही समझें
दस्ते रस से अगर है दूर कोई
क्या उसे हम ख़राब ही समझें
बुझ गई आग गंदे पानी से
क्या पियें ? और आब ही समझें
हाथ उठ्ठे हैं मेरी जानिब से
मौन को भी जवाब ही समझें
इक नशा है ग़ज़ल सराई भी
कहने वाले , शराब ही समझें
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय महर्षि त्रिपाठी भाई , सराहना के लिये आपका दिली शुक्रिया ॥
आदरणीय कंवर करतार भाई जी , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय मिथिलेश भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया ॥
आदरणीय सोमेश भाई , स्नेहिल सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय सुशील भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
कहने वाले शराब ही समझें ,,,,,क्या बात है आ. गिरिराज जी .....इस खूबसूरत रचना पर आपको हार्दिक बधाई |
"हाथ उठ्ठे हैं मेरी जानिब से
मौन को भी जवाब ही समझें
इक नशा है ग़ज़ल सराई भी
कहने वाले , शराब ही समझें"भाई गिरिराज , इन अशआर पर ख़ास ध्यान गया I सभी अशआर बेनजीर हैं Iदाद कबूल फरमायेंI
आदरणीय गिरिराज सर इस उम्दा ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कुबूल फरमाए
ये कमाल का शेर हुआ है-
हाथ उठ्ठे हैं मेरी जानिब से
मौन को भी जवाब ही समझें
हर बार की तरह बेहतरीन गज़ल |बधाई आदरणीय !
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