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हँसते - हँसते रो लेता हूँ, रोते - रोते हँसता हूँ |
कोई मुझसे ये मत पूछो आखिर क्यों मैं ऐसा हूँ |
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आईने-सी शक्ल बना कर इक नुक्कड़ पर बैठा हूँ |
कितने उजले, कितने काले, चेहरे गिनते रहता हूँ |
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ऐसा होगा, वैसा होगा, आज हुकूमत बदलेगी |
अपनी तो औकात ज़रा-सी, सबकी बातें सुनता हूँ |
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दिल का मतला, दर्द काफिया, छोटी बह्र है जीवन की |
सिर्फ अक़ीदत के लफ्जों से, सादी गज़लें लिखता हूँ |
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गम की दुनिया अपने भीतर, यारां ऐसे कैद न कर |
अपना गम मुझको बतला दे, मैं भी तेरे जैसा हूँ |
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सूरज, चाँद, सितारे, लोरी, खेल-खिलौने छूट गए |
फिर से ये सब मुझे दिलाओ मैं भी छोटा बच्चा हूँ |
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घर का ये आँगन लगता है जनम-जनम का प्यासा है |
जब भी आता-जाता घर में, पाँव भिगोकर चलता हूँ |
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दिल की बाते आज सितारों को बतला के चैन मिला |
पलकों से बादल-सा उतरा, खूब झमाझम बरसा हूँ |
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Comment
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी, ग़ज़ल पर सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीया उषा जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय खुर्शीद सर, ग़ज़ल पर आपकी प्रशंसा पाकर अभिभूत हूँ. आपने फैलुन वाली बह्र के लिए हिन्दी के अष्टक नियम का जो सूत्र बताया है कमाल है इसका बहुत लाभ होगा. विस्तृत प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय मिथिलेश जी ..बहतु सुंदर ग़ज़ल हुई है ..आपकी ग़ज़ल पर बिस्तृत चर्चा से जानकारी और समृद्ध हुई ..आदरणीय गिरिराज भाईसाब की बातों से भी मैं पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ ..इस शानदार रचना पर तहे दिल बधाई सादर
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, आखिर क्यूँ … के लिए बधाई स्वीकार करें .
आईने-सी शक्ल बना के इक नुक्कड़ पे बैठा हूँ |
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कितने उजले, कितने काले, चेहरे गिनते रहता हूँ |
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आदरणीय मिथिलेश भाई बहुत खूब ....
दिल की बाते आज सितारों को बतला के चैन मिला
पलकों से बादल-सा उतरा, खूब झमाझम बरसा हूँ....लाजवाब ! सादर
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