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बाजरे की बालियाँ...... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

2122—2122—2122—212

 

खेत की, खलिहान की औ गाँव की ये मस्तियाँ

कितनी  दिलकश हो गई है  बाजरे की बालियाँ

 

वो कहन क्यूं खो गई जो महफिलों को लूट लें

हर बड़ी बकवास  पर  अब बज रही है तालियाँ

 

आप  इतना तो  बताएं  क्या सियासतदार  है?

आपकी  मुस्कान  पे भी आ रही है  मितलियाँ

 

खींच  तानी  से भला  किसको  हुआ  है फायदा

किस तरह बरसे बता गर लड़ पड़ी जब बदलियाँ

 

मंजिले   उसने   बताई  परबतों    के  पार   है

बीच  में  अक्सर लुभाती है   महकती  वादियाँ

 

ख्वाहिशे उनकी भला  क्योंकर  समंदर  हो गई

ताज उनकों चाहिए  औ  ताज पे भी  कलगियाँ

 

ये मशालें बुझ रही  'मिथिलेश' अबके खुद जलो

और अंगारों से फिर उठने दो कातिल बिजलियाँ

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 7, 2015 at 8:54pm
आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला सर, स्नेह और सराहना के लिए हार्दिक आभार। हार्दिक धन्यवाद। मितली आना अर्थात जी मिचलाना या उबकाई आना या वमन आने को होना या उल्टी आने की को होना।
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 7, 2015 at 10:18am

बादलों को लेकर रची बहुत  उम्दा और भावपूर्ण गजल रचना वाह - विशेष कर -

खेत की, खलिहान की औ गाँव की ये मस्तियाँ

कितनी  दिलकश हो गई है  बाजरे की बालियाँ

 

वो कहन क्यूं खो गई जो महफिलों को लूट लें

हर बड़ी बकवास  पर  अब बज रही है तालियाँ

 

खींच  तानी  से भला  किसको  हुआ  है फायदा

किस तरह बरसे बता गर लड़ पड़ी जब बदलियाँ

 

मंजिले   उसने   बताई  परबतों    के  पार   है

बीच  में  अक्सर लुभाती है   महकती  वादियाँ }  एक  अश'आर में मित्लिया कर अर्थ मुझे नहीं मालूम | हार्दिक  बधाई आपको श्री मिथिलेश वामनकर जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 7, 2015 at 9:55am

शुक्रिया आ. मिथिलेश भाई , सलाह पर गौर फरमाने के लिये , अब शे र  सही लग रहा है ।  बधाई ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 7:22pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी एवं आदरणीय गिरिराज सर, ' बदलियो में' ने सारी बात स्पष्ट कर दी.... मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार ... त्रुटी सुधारता हूँ सादर 


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Comment by rajesh kumari on February 6, 2015 at 12:20pm

तन गई जो बदलियाँ कर सकते हो भाव नहीं बदलेगा 


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Comment by rajesh kumari on February 6, 2015 at 12:19pm

आपके  प्रतिउत्तर से  मेरी नजरों में आपके  सम्मान का स्नेह का इजाफ़ा हुआ है मिथिलेश जी दिली शुभकामनायें प्रेषित करती हूँ |

आ० गिरिराज जी ने और बात स्पष्ट  कर दी है ---ठन गई जो बदलियाँ  कभी नहीं हो सकता ----ठन  गई जो बदलियों की (उससे या किसी से भी )या ठन  गई बदलियों और उनके बीच ...ठन गई बदलियों में  -----इस तरह से आप ठन शब्द यूज कर सकते हैं 


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 6, 2015 at 11:40am

खूब गरजी, पर न बरसी, ठन गई जब  बदलियाँ   ---- आदरणीय मुझे लगता है जब तक बदलियो में ठन गई नही कह पायेंगे , अर्थ अधूरा लगेगा । या -- लड़ पड़ीं जब बदलियाँ --  कहने में काम चले तो आप ये भी कह सकते हैं ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 6, 2015 at 11:33am

आदारणीय मिथेश भाई , एक और अच्छी गज़ल के लिये दिली मुबारक बाद कुबूल करें ॥ आदरणीया राजेश जी की सलाह से मै भी सहमत हूँ , गौर कीजियेगा ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:57am

आदरणीया राजेश कुमारी जी ग़ज़ल आपको पसंद आई यही मेरे लिए बड़ी बात है. आपका स्नेह और मार्गदर्शन हमेशा से मिलता रहा है, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाओं और मार्गदर्शन का ही परिणाम है कि मेरे जैसा तुकबंदी करने वाला, धीरे धीरे ग़ज़ल कहना सीख रहा है. आपके सुझाव मेरे लिए सदा अमूल्य रहे है, और जहाँ तक माइंड करने की बात है तो आप भी जानती है अभी उस लायक नहीं हुआ हूँ कि गुनीजनों के आशीष को माइंड करूं. आपकी प्रतिक्रिया का आशीष ही मिल जाना मेरे लिए बड़ी बात है. आपके स्नेह और सराहना के लिए सदैव आभारी ही होता हूँ. 

आपने जिन अशआर पर निर्देशित किया है उसमें पहला-

खींच  तानी  से भला  किसको  हुआ  है फायदा

किस तरह बरसे बता गर ठन गई जो बदलियाँ

यहाँ खींचा तानी अर्थात मतभेद से तात्पर्य बदलियों के आपसी मतभेद से है और ठन गई जो बदलियाँ का तात्पर्य बदलियाँ आपस में ठन गई है. अर्थात आपसी मतभेद से किसी को लाभ नहीं होता जैसे बदलियाँ आपस में ठन जाती है तो फिर सिर्फ गरजती है लेकिन मूल धर्म बरसना है पर बरसती नहीं. शायद मैं अपने भावों को सही शब्द नहीं दे पाया इसलिए मूल भाव उभर नहीं पाया. पुनः प्रयास निवेदित है -

खींच  तानी  से भला  किसको  हुआ  है फायदा

खूब गरजी, पर न बरसी, ठन गई जब  बदलियाँ

अब इस शेर आपका मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है---

मंजिले   उसने   बताई  परबतों    के  पार   है

सिम्त  मेरे  दिख  रही  है  वादियाँ ही वादियाँ

आपके मार्गदर्शन को जस का तस स्वीकार करते हुए निवेदित है-

मंजिले   उसने   बताई  परबतों   के  पार   है

बीच में अक्सर लुभाती हैं  महकती   वादियाँ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:11am

आदरणीया छाया शुक्ला जी रचना पर सराहना एवं उत्साहवर्धक सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 

कृपया ध्यान दे...

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