आत्मायें,
बिक चुकीं हैं,
बेचीं जा रहीं हैं,
कुछ असहाय,बिचारीं हैं,
कुछ म्रत्प्रायः,
कुछ मर चुकी हैं !
शरीर,
उन मृत आत्माओं का,
बोझ ढोए जा रहें हैं !
शब्द,
खो चुके अपना अर्थ,
उन अर्थहीन शब्दों से,
अच्छे दिनों के नारे लगा रहें हैं !
पैर,
चलना नहीं चाहते,
उन अनिच्छुक पैरों को ,
अच्छे दिनों की आस में,
कंटक पथों पर जबरन चला रहें हैं !
ईश्वर,
रंगमंच पर विद्यमान है,
नाटक वही है,
दृश्य पर दृश्य,
बदलते जा रहें हैं !
लोग,
घायल दिलों से,
सवाल कर रहें हैं,
अच्छे दिन कब आ रहें हैं ?
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
कब आएंगे अच्छे दिन? इन्तजार रोज नए सपने और इन सपनों के जाल में उलझते जा रहे हम सभी ... राजनीति है बुरी. पर बिना इसके न चलती धरा, आखिर कहाँ है उसकी धुरी .एक ईमानदार व्यक्ति, लड़ रहा, खा रहा थपेड़े, दिन रात!
आपका बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश जी ! आपके हर शब्द से मुझे उत्साह मिलता है ,सादर
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु सादर धन्यवाद !
आ. हरि प्रकाश भाई , वाह ! क्या बात कही है ,
ईश्वर,
रंगमंच पर विद्यमान है,
नाटक वही है,
दृश्य पर दृश्य,
बदलते जा रहें हैं !
लोग,
घायल दिलों से,
सवाल कर रहें हैं,
अच्छे दिन कब आ रहें हैं - बहुत खूब ! बधाई स्वीकार करें
नाटक वही है,
दृश्य पर दृश्य,
बदलते जा रहें हैं !
लोग,
घायल दिलों से,
सवाल कर रहें हैं,
अच्छे दिन कब आ रहें हैं ?------------------------ sundar bhav !
इस अच्छी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई ... आ० भाई हरी प्रकाश जी , सादर l
बहुत मार्मिक ...अच्छी रचना है बहुत बहुत बधाई |
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