बर्तन भांडे चुप चुप सारे
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बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
टीन कनस्तर खाली खाली
माचिस देख निराशा है
लकड़ी की आँखें गीली बस
स्वप्न धूप के देख रही
सीली सीली दीवारों को
मन मन में बस कोस रही
पढा लिखा संकोची बेलन
की पर सुधरी भाषा है
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
स्वाभिमान बीमार पडा है
चौखट चौखट घूम रहा
गिर गिर पड़ता है, हर दर में
जैसे चौखट चूम रहा
थाली का आकार बिगड़ अब
लगता जैसे कासा है
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
थोड़ी हवा चली, इच्छाएं
आँगन तक ले आये हैं
पल भर को जो धूप खिली थी
इनको भी दिखलाये हैं
जब तक सांस बची है अपनी
तब तक रखनी आशा है
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , नवगीत रचना को मान देने के लिये आपका दिल से शुक्रिया ।
छोटे भाई गिरिराज
यह गीत भारत की आधी आबादी के रहन सहन और हालात पर बिल्कुल सटीक है ।
हारदिक बधाई
आ० अनुज
आज--कल आप हर विधा को आजमा रहे है और नजर न लगे क्या खूब आजमा रहे हैं i आमीन i
जब तक सांस बची है अपनी
तब तक रखनी आशा है ....
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई !
आदरणीय विजय शंकर भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय सोमेश भाई आपका दिली आभार !
आदरणीय मिथिलेश भाई , प्रथम नवगीत की सराहना के लिये आपका दिली शुक्रिया ।
आदरणीय गुमनाम भाई , आपका शुक्रिया !
आदरणीय शिज्जु भाई , हौसला अफज़ाई के लिये दिली शुक्रिया ।
आदरणीय नीरज भाई ,उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
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