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दिल्ली के दावेदारों

दिल्ली के दावेदारों तुम , देहातों में जाकर देखो

तकलीफ़ों की लहरें देखो ,गम का गहरा सागर देखो

 

सूरज अंधा चंदा अंधा , दीप बुझे हैं आशाओं के

रातें काली हैं सदियों से , और दुपहरें धूसर देखो

 

निर्धन की झोली में है दुख ,मौज दलालों के हिस्से में

कुटिया देखो दुखिया की तुम ,वैभव मुखिया के घर देखो

 

मोती निपजाने वाले तन ,धोती को तरसे बेचारे

गोदामों में सड़ता गेंहूं , भूखे बेबस हलधर देखो

 

आँसू गाँवों के भरते हो , सुविधाओं के पैमानों में

ठेठ अभावों की खाई से ,विपदाओं का डूंगर देखो

 

मुफ़्त दवायें मुफ़्त पढाई , शर्मसार सब जुमले होंगें 

खटिया पर इक रोगी बुढ़िया ,मैले नंगे टाबर देखो

 

जश्न मनाओ आज़ादी का , लूट मचाओ देहातों में

ढोल नरेगा का पीटो मत ,पेट फुलाये अफ़सर देखो

 

सात पुश्त तक का तुमने तो , इंतजाम कर लिया खज़ाने में

सात दशक की आज़ादी की , हालत कितनी जर्जर देखो

 

अँधियारे को झुठलाते हो , फ़िल्म चढ़ाकर तुम चमकीली 

रंग उड़ा झूंठे दावों का , काली धुँधली पिक्चर देखो

 

आजीवन आँसू पीकर भी ,प्यासी है सुख की चिंगारी

सागर सागर भटका फिर भी ,रीती मन की गागर देखो

 

आखिर ये दिन भी थे आने ,अब ‘खुरशीद’ ग़ज़ल कहता है

कलयुग में घर घर नेता ,गली गली में शायर देखो 

.

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 12, 2014 at 11:31am

//मोती निपजाने वाले तन ,धोती को तरसे बेचारे
गोदामों में सड़ता गेंहूं , भूखे बेबस हलधर देखो // वाह वाह वाह !

पूरी गज़ल ही लाजवाब है, हार्दिक बधाई आ० खुर्शीद खैराड़ी जी।

Comment by Shyam Narain Verma on November 12, 2014 at 10:33am

" सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई ...... "

Comment by maharshi tripathi on November 11, 2014 at 8:46pm

बहुत खूबसूरत ,sir


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 11, 2014 at 7:35pm

क्या खूबसूरत ग़ज़ल कही है, सीधे दिल तक चोट करती है, कुछ अशआर तो बेहद संजीदा हुए हैं,

//निर्धन की झोली में है दुख ,मौज दलालों के हिस्से में
कुटिया देखो दुखिया की तुम ,वैभव मुखिया के घर देखो//

क्या कहने आदरणीय, उम्दा !

//सात पुश्त तक का तुमने तो , इंतजाम कर लिया खज़ाने में//
इस मिसरा का प्रवाह बाधित हो रहा है, एक बार देख लीजियेगा।
बहरहाल बहुत बहुत बधाई आदरणीय खुर्शीद साहब।

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 11, 2014 at 6:53pm

जनता की आज़ादी अभी बाकी है और बहुत दूर है। भ्रम को हटाती बहुत अच्छी ग़ज़ल आदरणीय खुर्शीद हैदर जी बधाई। 

Comment by Sushil Sarna on November 11, 2014 at 6:20pm

आदरणीय वर्तमान व्यवस्था पर चोट करती सुंदर ग़ज़ल। 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 11, 2014 at 4:41pm

व्यवस्था की पोल  खोलती एक जागरूक  गजल

Comment by somesh kumar on November 11, 2014 at 3:40pm

behtrin gzl,aakhiri lain umda vyng 

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